।। द्वितीय स्कन्धः ।। ।। अथ तृतीयोऽध्यायः ।।
श्रीशुक उवाच
एवमेतन्निगदितं पृष्टवान्यद्भवान्मम
नृणां यन्म्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम् 1
श्रीशुकदेवजी ने कहा—– परीक्षित ! तुमने मुझसे जो पूछा था कि मरते समय बुद्धिमान मनुष्य को क्या करना चाहिये, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया ॥1॥
ब्रह्मवर्चसकामस्तु यजेत ब्रह्मणः पतिम्
इन्द्रमिन्द्रियकामस्तु प्रजाकामः प्रजापतीन् 2
जो ब्रह्मतेज का इच्छुक हो वह बृहस्पति की; जिसे इन्द्रियों की विशेष शक्ति की कामना हो वह इंद्र की और जिसे संतान की लालसा हो वह प्रजापतियों की उपासना करे ॥2॥
देवीं मायां तु श्रीकामस्तेजस्कामो विभावसुम्
वसुकामो वसून्रुद्रान्वीर्यकामोऽथ वीर्यवान् 3
जिसे लक्ष्मी चाहिये वह मायादेवी की जिसे तेज चाहिये वह अग्नि की, जिसे धन चाहिये वह वसुओं की और जिस प्रभावशाली पुरुष को वीरता की चाह हो उसे रुद्रों की उपासना करनी चाहिये ॥3॥
अन्नाद्यकामस्त्वदितिं स्वर्गकामोऽदितेः सुतान्
विश्वान्देवान्राज्यकामः साध्यान्संसाधको विशाम् 4
जिसे बहुत अन्न प्राप्त करने की इच्छा हो वह अदिति; जिसे स्वर्ग की कामना हो वह अदिति के पुत्र देवताओं का, जिसे राज्य की अभिलाषा हो वह विश्वदेवों का और जो प्रजा को अपने अनुकूल बनाने की इच्छा रखता हो उसे साध्य देवताओं का आराधन करना चाहिये ॥4॥
आयुष्कामोऽश्विनौ देवौ पुष्टिकाम इलां यजेत्
प्रतिष्ठाकामः पुरुषो रोदसी लोकमातरौ 5
आयु की इच्छा से अश्विनीकुमारों का, पुष्टि की इच्छा से पृथ्वी का और प्रतिष्ठा की चाह हो तो लोक माता पृथ्वी और द्यौ ( आकाश )— का सेवन करना चाहिये॥5॥
रूपाभिकामो गन्धर्वान्स्त्रीकामोऽप्सर उर्वशीम्
आधिपत्यकामः सर्वेषां यजेत परमेष्ठिनम् 6
सौन्दर्य की चाह से गन्धर्वों की, पत्नी की प्राप्ति के लिये उर्वशी अप्सरा की और सबका स्वामी बनने के लिये ब्रह्मा की आराधना करनी चाहिये ॥6॥
यज्ञं यजेद्यशस्कामः कोशकामः प्रचेतसम्
विद्याकामस्तु गिरिशं दाम्पत्यार्थ उमां सतीम् 7
जिसे यश की इच्छा हो वह यज्ञपुरुष की, जिसे खजाने की लालसा हो वह वरुण की; विद्या प्राप्त करने की आकांक्षा हो भगवान् शंकर की और पति-पत्नी में परस्पर प्रेम बनाये रखने लिये पार्वती जी की उपासना करनी चाहिये ॥7॥
धर्मार्थ उत्तमश्लोकं तन्तुः तन्वन्पित्न्यजेत्
रक्षाकामः पुण्यजनानोजस्कामो मरुद्गणान् 8
धर्म-उपार्जन करने के लिये विष्णु भगवान् की, वंशपरम्परा की रक्षा के लिये पितरों की, बाधाओं से बचने के लिये यक्षों की और बलवान होने लिए मरूदगणों की आराधना करनी चाहिये ॥8॥
राज्यकामो मनून्देवान्निरृतिं त्वभिचरन्यजेत्
कामकामो यजेत्सोममकामः पुरुषं परम् 9
राज्य के लिये मन्वन्तरों के अधिपति देवों को, अभिचार के निरऋति को, भोगों के लिये चन्द्रमा को और निष्कामता प्राप्त करने के लिए परम पुरुष नारायण को भजना चाहिये ॥9॥
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् 10
और जो बुद्धिमान पुरुष है—– वह चाहे निष्काम हो,समस्त कामनाओं से युक्त हो अथवा मोक्ष चाहता हो— उसे तो तीव्र भक्तियोग के द्वारा केवल पुरुषोत्तम भगवान् की ही आराधना करनी चाहिये ॥10॥
एतावानेव यजतामिह निःश्रेयसोदयः
भगवत्यचलो भावो यद्भागवतसङ्गतः 11
जितने भी उपासक हैं, उनका सबसे बड़ा हित इसी में है कि वे भगवान् के प्रेमी भक्तों का संग करके भगवान् में अविचल प्रेम प्राप्त कर लें ॥11॥
ज्ञानं यदाप्रतिनिवृत्तगुणोर्मिचक्रम्
आत्मप्रसाद उत यत्र गुणेष्वसङ्गः
कैवल्यसम्मतपथस्त्वथ भक्तियोगः
को निर्वृतो हरिकथासु रतिं न कुर्यात् 12
ऐसे पुरुषों के सत्संग में जो भगवान् की लीला-कथाएँ होती हैं, उनसे उस दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे संसार सागर की त्रिगुणमयी तरंगमालाओं के थपेड़े शान्त हो जाते हैं, इन्द्रियोंके विषयों में आसक्ति नहीं रहती, कैवल्यमोक्ष का सर्वसम्मत मार्ग भक्तियोग प्राप्त हो जाता है। भगवान् की ऐसी रसमयी कथाओं का चस्का लग जानेपर भला कौन ऐसा है, जो उनमें प्रेम न करे ॥12॥
शौनक उवाच
इत्यभिव्याहृतं राजा निशम्य भरतर्षभः
किमन्यत्पृष्टवान्भूयो वैयासकिमृषिं कविम् 13
शौनकजी ने कहा—– सूतजी ! राजा परीक्षित ने शुकदेवजी की यह बात सुनकर उनसे और क्या पूछा? वे तो सर्वज्ञ होने के साथ-ही-साथ मधुर वर्णन करने में भी बड़े निपुण थे ॥13॥
एतच्छुश्रूषतां विद्वन्सूत नोऽर्हसि भाषितुम्
कथा हरिकथोदर्काः सतां स्युः सदसि ध्रुवम् 14
सूतजी ! आप तो सब कुछ जानते हैं, हमलोग उनकी वह बातचीत बड़े प्रेम से सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। क्योंकि संतों की सभा में ऐसी ही बातें होती हैं जिनका पर्यवसान भगवान् की ल=रसमयी लीला-कथा में ही होता है ॥14॥
स वै भागवतो राजा पाण्डवेयो महारथः
बालक्रीडनकैः क्रीडन्कृष्णक्रीडां य आददे 15
पाण्डुनन्दन महारथी राजा परीक्षित बड़े भगवद्भक्त थे। बाल्यावस्था में खिलौनों से खेलते समय भी वे श्रीकृष्णलीला का ही रस लेते थे ॥15॥
वैयासकिश्च भगवान्वासुदेवपरायणः
उरुगायगुणोदाराः सतां स्युर्हि समागमे 16
भगवन्मय श्रीशुकदेवजी भी जन्म से ही भगत्परायण हैं। ऐसे संतों के सत्संग में भगवान् के मंगलमय गुणों की दिव्य चर्चा अवश्य ही हुई होगी ॥16॥
आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तं च यन्नसौ
तस्यर्ते यत्क्षणो नीत उत्तमश्लोकवार्तया 17
जिसका समय भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों के गान अथवा श्रवण में व्यतीत हो रहा है, उसके अतिरिक्त सभी मनुष्यों की आयु व्यर्थ जा रही है. ये भगवान् सूर्य प्रतिदिन अपने उदय और अस्त से उनकी आयु छीनते जा रहे हैं ॥17॥
तरवः किं न जीवन्ति भस्त्राः किं न श्वसन्त्युत
न खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामे पशवोऽपरे 18
क्या वृक्ष नहीं जीते? क्या लुहार की धौंकनी साँस नहीं लेती? गाँव के अन्य पालतू पशु क्या मनुष्य—पशु की ही तरह खाते-पीते या मैथुन नहीं करते? ॥18॥
श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः
न यत्कर्णपथोपेतो जातु नाम गदाग्रजः 19
जिसके कान में भगवान् श्रीकृष्ण की लीला-कथा कभी नही पड़ी, वह नर पशु,कुत्ते,ग्रामसुकर, ऊँट और गधे से भी गया बीता है ॥19॥
बिले बतोरुक्रमविक्रमान्ये न शृण्वतः कर्णपुटे नरस्य
जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्युरुगायगाथाः 20
सूतजी ! जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण की कथा कभी नहीं सुनता, उसके कान बिल के समान हैं। जो जीभ भगवान् की लीलाओं का गायन नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान टर्र-टर्र करनेवाली है; उसका तो न रहना ही अच्छा है ॥20॥
भारः परं पट्टकिरीटजुष्टमप्युत्तमाङ्गं न नमेन्मुकुन्दम्
शावौ करौ नो कुरुते सपर्यां हरेर्लसत्काञ्चनकङ्कणौ वा 21
जो सिर कभी भगवान् के चरणों में झुकता नहीं, वह रेशमी वस्त्र से सुसज्जित और मुकुट से युक्त होनेपर भी बोझामात्र ही है। जो हाथ भगवान् की सेवा-पूजा नही करते, वे सोने के कंगन से भूषित होने पर भी मुर्दे के हाथ हैं ॥21॥
बर्हायिते ते नयने नराणां लिङ्गानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये
पादौ नृणां तौ द्रुमजन्मभाजौ क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरेर्यौ 22
जो आँखे भगवान् की याद दिलानेवाली मूर्ति,तीर्थ, नदी आदि का दर्शन नहीं करतीं, वे मोरों की पाँख में बने हुए आँखों के चिह्न के समान निरर्थक हैं। मनुष्यों के वे पैर चलने की शक्ति रखनेपर भी न चलनेवाले पेड़ों-जैसे ही हैं, जो भगवान् की लीला स्थलियों की यात्रा नहीं करते ॥22॥
जीवञ्छवो भागवताङ्घ्रिरेणुं न जातु मर्त्योऽभिलभेत यस्तु
श्रीविष्णुपद्या मनुजस्तुलस्याः श्वसञ्छवो यस्तु न वेद गन्धम् 23
जिस मनुष्य ने भगवत्प्रेमी संतों के चरणों की धूल कभी सिरपर चढ़ी हुई तुलसी की सुगन्ध लेकर उसकी सराहना नहीं की, वह श्वास लेता हुआ भी श्वासरहित शव है ॥23॥
तदश्मसारं हृदयं बतेदं यद्गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः
न विक्रियेताथ यदा विकारो नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः 24
सूतजी ! वह हृदय नहीं लोहा है, जो भगवान् के मंगलमय नामों का श्रवण-कीर्तन करनेपर भी पिघलकर उन्हीं की ओर बह नहीं जाता। जिस समय हृदय पिघल जाता है, उस समय नेत्रों में आँसू छलकने लगते हैं और शरीर का रोम-रोम खिल उठता है ॥24॥
अथाभिधेह्यङ्ग मनोऽनुकूलं प्रभाषसे भागवतप्रधानः
यदाह वैयासकिरात्मविद्या विशारदो नृपतिं साधु पृष्टः 25
प्रिय सूतजी ! आपकी वाणी हमारे हृदय को मधुरता से भर देती है। इसलिये भगवान् के परम भक्त, आत्मविद्या-विशारद श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित के सुन्दर प्रश्न करनेपर जो कुछ कहा, वह संवाद आप कृपा करके हमलोगों को सुनाइये ॥25॥