मनुष्य के कुछ निजी आदतों से भी मुक्ति का मार्ग निकल जाता है ।। Sansthanam.

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जय श्रीमन्नारायण,

Bhagwat Pravakta – Swami Dhananjay Maharaj.
मित्रों, मनुष्य एक विलक्षण (विशिष्ट) प्राणी है, क्योंकि एक कामना ऐसी है, जो लगभग जीवमात्र में होती है । जैसे – खाने की, पीने की, भोगने की, कुछ संग्रह करने की । ये कोई नई बात नहीं है, कुछ ऐसे भी जीव होते हैं, जब पेट भर जाए, तो वो भी किसी प्रिय खाद्य पदार्थ को संग्रहार्थ सुरक्षित करता है कि ‘कल खायेंगे’।।

मित्रों, यही कामना है और इसे ही कामना कहते हैं । ‘पैसे अभी हैं पर थोड़े कुछ और बैंक में भी होने चाहिएं आवश्यकता पर काम आयेंगे’ – यह कामना है । पेड़-पौधों को भी कामना होती है परंतु उनकी कामना और होती है । मनुष्य की कामना कुछ और होती है, जानवरों की कामना कुछ और होती है पर कामना सभी जीवों में सहज एवं स्वाभाविक ही होती है ।।

लेकिन मित्रों, मनुष्य में दो चीजें ऐसी होती हैं, जो और जीवों में नहीं होतीं । पेड़ पौधों में कामना होती है खाद-पानी की, कीट-पतंग में कामना होती है अपने आहार की, अपने बच्चों को सुरक्षित रखने की । लेकिन मनुष्य में कामना के साथ एक लालसा और दूसरी जिज्ञासा होती है । मेरे विचारों में ये दोनों बहुत ही ऊँची चीज है और इस ऊँची चीज को हमें महत्त्व देना चाहिए ।।

मित्रों, गीता के सार की बात करूँ, तो हमें हमारी कामना को प्रारब्ध अथवा भगवान के हवाले कर देना चाहिए । यथा – मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी माम् नमस्कुरु । मैं समझता हूँ, इस बात का लेश मात्र भी अगर हमारे अन्दर उतर जाय, तो हम देखते-देखते महान आत्मा बन जायेंगे दिव्यात्मा बन जायेंगे ।।

लालसा होती है भगवद्रसपान की, भगवान के माधुर्य अथवा उस अज्ञात आनंद को पाने की । कितना भी धन हो जाये फिर भी धनी से धनी भी भगवान के यहाँ जाते हैं । और किसी न किसी को तो मानना ही पड़ेगा, कहीं न कहीं तो रुकना ही पड़ेगा क्योंकि वो अनंत है, उसका कोई अंता नहीं है । लगभग सभी लोग भगवान को मानते हैं, फिर चाहे उनके मानने का तरीका जो भी हो । कोई बिरला ही ऐसा अभागा होगा, जो अबतक न थका होगा इसलिए ही शायद नहीं मानता होगा । और मेरे विचारों में जो ईश्वर को नहीं मानते, समझो उनकी मनुष्यता ही खो गयी ।।

मनुष्य की लालसा ये होती है, कि भगवत्सुख अर्थात् अन्तहीन सुख मिले । अब भले ही वो अनजाने में ही सही लेकिन वास्तव में इन्सान भगवत्प्रीति, भगवद्रस अथवा भगवद्धाम की खोज ही करता है । क्योंकि सब कुछ होने के बाद भी ये लालसा, ये खोज समाप्त नहीं होती, अपितु जारी ही रहती है 

जिज्ञासा इस बात की होती है, कि हम वास्तव में कौन हैं ? शरीर मर जाता है फिर भी हम तो रहते हैं । मरने के बाद भी क्या हम होते हैं ? अगर हाँ तो हम कौन हैं और भगवान क्या हैं ? हमारे और भगवान के बीच संबंध क्या है ? अनुभवी लोगों अथवा प्रमाणों की बात मानें तो फिर उससे ये दुरी कैसी और अगर है, तो वो कैसे मिटे, कैसे जानें उसे ? यह जो जानने की भावना होती है इसे ही जिज्ञासा कहते है ।।

मित्रों, यही मनुष्यों में अन्य प्राणियों की अपेक्षा विशिष्ट होती है तथा यही विशिष्टता उसे वो अमरत्व भी प्रदान कर देती है ।।

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भगवान नारायण और माता महालक्ष्मी सभी को सद्बुद्धि दें ।।

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जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।

।। नमों नारायण ।।

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