द्वितीय स्कन्धः ।। अथ अष्टमोऽध्यायः।। BHAGWAT PURAN.

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।। श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।  ।। श्रीमद्भागवत महापुराणम् ।।
।। द्वितीय स्कन्धः ।।  ।। अथ अष्टमोऽध्यायः ।।

राजोवाच
ब्रह्मणा चोदितो ब्रह्मन्गुणाख्यानेऽगुणस्य च
यस्मै यस्मै यथा प्राह नारदो देवदर्शनः 1
एतद्वेदितुमिच्छामि तत्त्वं तत्त्वविदां वर
हरेरद्भुतवीर्यस्य कथा लोकसुमङ्गलाः 2

राजा परीक्षित ने कहा — भगवन ! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मैं आप से यह जानना चाहता हूँ कि  जब ब्रह्माजी ने निर्गुण भगवन्न के गुणों का वर्णन करने के लिए नारदजी को आदेश दिया, तब उन्होंने किन -किन को किस रूप में उपदेश किया? एक तो अचिन्त्य शक्तियों के आश्रय भगवान् की कथाएँ ही लोगों का परम मंगल करनेवाली हैं, दूसरे देवर्षि नारद का सबको भगवददर्शन कराने का स्वाभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये ॥1-2॥

कथयस्व महाभाग यथाहमखिलात्मनि
कृष्णे निवेश्य निःसङ्गं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम् 3

महाभाग्यवान शुकदेवजी ! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि  मैं अपने आसक्तिरहित मन को सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ ॥3॥

शृण्वतः श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम्
कालेन नातिदीर्घेण भगवान्विशते हृदि 4

जो लोग उनकी लीलाओं का श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदय में थोड़े ही समय में भगवान् प्रकट हो जाते हैं ॥4॥

प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम्
धुनोति शमलं कृष्णः सलिलस्य यथा शरत् 5

श्रीकृष्ण कान के छिद्रों के द्वारा अपने भक्तों के भावमय हृदयकमलपर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद ऋतु जल का गँदलापण मिटा देती है, वैसे ही वे भक्तों के मनोमल का नाश कर देते हैं ॥5॥

धौतात्मा पुरुषः कृष्ण पादमूलं न मुञ्चति
मुक्तसर्वपरिक्लेशः पान्थः स्वशरणं यथा 6

जिसका हृदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्ण के चरणकमलों को एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ता — जैसे मार्ग के समस्त क्लेशों से छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घर को नहीं छोड़ता ॥6॥

यदधातुमतो ब्रह्मन्देहारम्भोऽस्य धातुभिः
यदृच्छया हेतुना वा भवन्तो जानते यथा 7

भगवन ! जीव का पंचभूतों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। तो क्या स्वाभाव से ही ऐसा होता है, अथवा किसी कारणवश —आप इस बात का मर्म पुर्नृति से जानते हैं ॥7॥

आसीद्यदुदरात्पद्मं लोकसंस्थानलक्षणम्
यावानयं वै पुरुष इयत्तावयवैः पृथक्
तावानसाविति प्रोक्तः संस्थावयववानिव 8

( आपने बतलाया कि ) भगवान् की नाभि से वह कमल प्रकट हुआ, जिसमें लोकों की रचना हुई। यह जीव अपने सीमित अवयवों से जैसे परिच्छिन्न हैं, वैसे ही आपने परमात्मा को भी सीमित अवयवों से परिच्छिन्न -सा वर्णन किया ( यह क्या बात है?) ॥8॥

अजः सृजति भूतानि भूतात्मा यदनुग्रहात्
ददृशे येन तद्रूपं नाभिपद्मसमुद्भवः 9
स चापि यत्र पुरुषो विश्वस्थित्युद्भवाप्ययः
मुक्त्वात्ममायां मायेशः शेते सर्वगुहाशयः 10

जिनकी कृपा से सर्वभूतमय ब्रह्माजी प्राणियों की सृष्टि करते हैं, जिनके नाभिकमल से पैदा होनेपर भी जिनकी कृपा से ही ये उनके रूप का दर्शन कर सके थे, वे संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के हेतु सर्वान्तर्यामी और माया के स्स्वामी परम्पुर्ष परमात्मा अपनी माया का त्याग करके किस्में किस रूप से शयन करते हैं? ॥9-10॥

पुरुषावयवैर्लोकाः सपालाः पूर्वकल्पिताः
लोकैरमुष्यावयवाः सपालैरिति शुश्रुम 11

पहले आपने बतलाया था कि विराट पुरुष के अंगों से लोक और लोकपालों की रचना हुई और फिर यह भी बतलाया की लोग और लोकपालो के रूप में उसके अंगों की कल्पना हुई। इन दोनों बातों का तात्पर्य क्या है? ॥11॥

यावान्कल्पो विकल्पो वा यथा कालोऽनुमीयते
भूतभव्यभवच्छब्द आयुर्मानं च यत्सतः 12

महाकल्प और उनके अंतर्गत अवान्तर कल्प कितने हैं? भूत, भविष्यत और वर्तमान कालका अनुमान किस प्रकार किया जाता है? क्या स्थूल देहाभिमानी जीवों की आयु भी बँधी हुई है ॥12॥

कालस्यानुगतिर्या तु लक्ष्यतेऽण्वी बृहत्यपि
यावत्यः कर्मगतयो यादृशीर्द्विजसत्तम 13

ब्राह्मणश्रेष्ठ ! काल को सूक्ष्म गति त्रुटि आदि और स्थूल गति वर्ष आदि किस प्रकार से जानी जाती है? विविध कर्मों से जीवों की कितनी और कैसी गतियाँ होती हैं ॥13॥

यस्मिन्कर्मसमावायो यथा येनोपगृह्यते
गुणानां गुणिनां चैव परिणाममभीप्सताम् 14

देव,मनुष्य आदि योनियाँ सत्त्व,रज,तम — इन तीन गुणों के फलस्वरूप ही प्राप्त होती हैं। उनको चाहनेवाले जीवों में से कौन -कौन किस-किस योनि को प्राप्त करने के लिए किस -किस प्रकार से कौन-कौन कर्म स्वीकार करते हैं? ॥14॥

भूपातालककुब्व्योम ग्रहनक्षत्रभूभृताम्
सरित्समुद्रद्वीपानां सम्भवश्चैतदोकसाम् 15

पृथ्वी,पाताल,दिशा,आकाश,ग्रह,नक्षत्र,पर्वत,नदी,समुद्र,द्वीप और उनमें रहनेवाले जीवों की उत्पत्ति कैसे होती है? ॥15॥

प्रमाणमण्डकोशस्य बाह्याभ्यन्तरभेदतः
महतां चानुचरितं वर्णाश्रमविनिश्चयः 16

ब्रह्माण्ड का परिमाण भीतर और बाहर —दोनों प्रकार से बतलाइये। साथ ही महापुरुषों के चरित्र,वर्णाश्रम के भेद और उनके धर्म का निरूपण कीजिये ॥16॥

युगानि युगमानं च धर्मो यश्च युगे युगे
अवतारानुचरितं यदाश्चर्यतमं हरेः 17

युगों के भेद, उनके परिमाण और उनके अलग -अलग धर्म तथा भगवान् के विभिन्न अवतारों के परम आश्चर्यमय चरित्र भी बतलाइये ॥ 17॥

नृणां साधारणो धर्मः सविशेषश्च यादृशः
श्रेणीनां राजर्षीणां च धर्मः कृच्छ्रेषु जीवताम् 18

मनुष्यों के साधारण और विशेष धर्म का कौन -कौन से हैं ? विभिन्न व्यवसायवाले लोगों के, राजर्षियों के और विपत्ति में पड़े हुए लोगों के धर्मं का भी उपदेश कीजिये ॥18॥

तत्त्वानां परिसङ्ख्यानं लक्षणं हेतुलक्षणम्
पुरुषाराधनविधिर्योगस्याध्यात्मिकस्य च 19

तत्त्वों की संख्या कितनी है, उनके स्वरुप और लक्षण क्या हैं? भगवान् इ आरादना की और अध्यात्मयोग की विधि क्या हैं?॥19॥

योगेश्वरैश्वर्यगतिर्लिङ्गभङ्गस्तु योगिनाम्
वेदोपवेदधर्माणामितिहासपुराणयोः 20

योगेश्वरों को क्या -क्या ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं , तथा अन्त में उन्हें कौन -सी गति मिलती है ? योगियों का लिंगशरीर किस प्रकार भंग होता है? वेद,उपवेद, धर्मशास्त्र, इतिहास और पुराणों की स्वरुप एवं तात्पर्य क्या है? ॥20॥

सम्प्लवः सर्वभूतानां विक्रमः प्रतिसङ्क्रमः
इष्टापूर्तस्य काम्यानां त्रिवर्गस्य च यो विधिः 21

समस्त प्राणियों की उत्पत्ति,स्थिति और प्रलय कैसे होता है? बावली,कुआँ खुदवाना आदि स्मार्त्त,यज्ञ -यागादि वैदिक एवं काम्य कर्मों की तथा अर्थ -धर्म-काम के साधनों की विधि क्या हैं ? पाखण्ड की उत्पत्ति कैसे होती है? आत्मा के बन्ध -मोक्ष का स्वरुप क्या है ? और वह अपने स्वरुप में किस प्रकार स्थित होता है? ॥21॥

यो वानुशायिनां सर्गः पाषण्डस्य च सम्भवः
आत्मनो बन्धमोक्षौ च व्यवस्थानं स्वरूपतः 22
यथात्मतन्त्रो भगवान्विक्रीडत्यात्ममायया
विसृज्य वा यथा मायामुदास्ते साक्षिवद्विभुः 23

भगवान् तो परम स्वतंत्र हैं। वे अपनी माया से किस प्रकार क्रीडा करते हैं और उसे छोड़कर साक्षी के समान उदासीन कैसे हो जाते हैं? ॥23॥

सर्वमेतच्च भगवन्पृच्छतो मेऽनुपूर्वशः
तत्त्वतोऽर्हस्युदाहर्तुं प्रपन्नाय महामुने 24

भगवन ! मैं यह सब आप से पूछ रहा हूँ। मैं आपकी शरण में हूँ। महामुने ! आप कृपा करके क्रमशः इनका तात्त्विक निरूपण कीजिये ॥ 24॥

अत्र प्रमाणं हि भवान्परमेष्ठी यथात्मभूः
अपरे चानुतिष्ठन्ति पूर्वेषां पूर्वजैः कृतम् 25

इस विषय में आप स्वयम्भू ब्रह्मा के समान परम प्रमाण हैं। दुसरे लोग तो अपनी पूर्वपरम्परा से सुनी -सुनायी बातों का ही अनुष्ठान करते हैं ॥ 25॥

न मेऽसवः परायन्ति ब्रह्मन्ननशनादमी
पिबतो ञ्च्युतपीयूषम्तद्वाक्याब्धिविनिःसृतम् 26

ब्राह्मन ! आप मेरी भूख-प्यास की चिन्ता न करें। मेरे प्राण कुपित ब्राह्मण के शाप के अतिरिक्त और किसी कारण  से निकल नहीं सकते; क्योकि मैं आप के मुखारविन्द से निकलनेवाली भगवान् की अमृतमयी लीलाकथा का पान कर रहा हूँ ॥26॥

सूत उवाच
स उपामन्त्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पतेः
ब्रह्मरातो भृशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि 27

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियों ! जब राजा परीक्षित ने संतों की सभा में भगवान् की लीला कथा सुनाने के लिए इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजी को बड़ी प्रसन्नता हुई ॥27॥

प्राह भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम्
ब्रह्मणे भगवत्प्रोक्तं ब्रह्मकल्प उपागते 28

उन्होंने उन्हें वाही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत -महापुराण सुनाया , जो ब्रह्मकल्प के आरम्भ में स्वयं भगवान् ने ब्रह्माजी को सुनाया था ॥28॥

यद्यत्परीक्षिदृषभः पाण्डूनामनुपृच्छति
आनुपूर्व्येण तत्सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे 29

पाण्डुवंशशिरोमणि परीक्षित ने उनसे जो -जो प्रश्न किये थे , वे उन सबका उत्तर क्रमशः देने लगे ॥29॥

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