प्रथम स्कन्धः ।। अथ सप्तदशोऽध्यायः ।। BHAGWAT PURAN.

0
139
 श्री राधाकृष्णाभ्याम् नम:  

 श्रीमद्भागवत महापुराणम्  

 प्रथम स्कन्धः 

 अथ अष्टादशोऽध्यायः ।। 

सूत उवाच
तत्र गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत्
दण्डहस्तं च वृषलं ददृशे नृपलाञ्छनम् 1
    

सूतजी कहते हैं—- शौनकजी ! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित ने देखा की एक राजवेषधारी शुद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैल के एक जोड़े को इस तरह पीटता जा रह है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ।।1।।

वृषं मृणालधवलं मेहन्तमिव बिभ्यतम्
वेपमानं पदैकेन सीदन्तं शूद्रताडितम् 2
    

वह कमलतन्तु के समान श्वेत रंग का बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शुद्र की ताड़ना से पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था ।।2।।

गां च धर्मदुघां दीनां भृशं शूद्रपदाहताम्
विवत्सामाश्रुवदनां क्षामां यवसमिच्छतीम् 3
    

धर्मोप्योगी दूध,घी आदि हविष्य पदार्थों को देनेवाली वह गाय भी बार-बार शुद्र के पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दुसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे ।।3।।

पप्रच्छ रथमारूढः कार्तस्वरपरिच्छदम्
मेघगम्भीरया वाचा समारोपितकार्मुकः 4
    

स्वर्णजटित रथपर चढ़े हुए राजा परीक्षित ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उसको ललकारा ।।4।।

कस्त्वं मच्छरणे लोके बलाद्धंस्यबलान्बली
नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः 5
    

अरे ! तू कौन है, जो बलवान होकर भी मेरे राज्य के इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है? तूने नट की भाँति वेश तो राजा का -सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शुद्र जान पड़ता है ।।5।।

यस्त्वं कृष्णे गते दूरं सहगाण्डीवधन्वना
शोच्योऽस्यशोच्यान्रहसि प्रहरन्वधमर्हसि 6
    

हमारे दादा अर्जुन के साथ भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थान में निरपराधों पर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अतः वध के योग्य है ।।6।।

त्वं वा मृणालधवलः पादैर्न्यूनः पदा चरन्
वृषरूपेण किं कश्चिद्देवो नः परिखेदयन् 7

उन्होंने धर्म से पूछा — कमल-नाल के समान आपका श्वेतवर्ण  है।  तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते
हैं। यह  देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैल के रूप में कोई

न जातु कौरवेन्द्राणां दोर्दण्डपरिरम्भिते
भूतलेऽनुपतन्त्यस्मिन्विना ते प्राणिनां शुचः 8
    

अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबल से सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोक के आँसू बहते मैंने नहीं देखे ।।8।।

मा सौरभेयात्र शुचो व्येतु ते वृषलाद्भयम्
मा रोदीरम्ब भद्रं ते खलानां मयि शास्तरि 9
    

धेनुपुत्र ! अब आप शोक न करें। इस शुद्र से निर्भय हो जाये। गोमाता ! मैं दुष्टों की दण्ड  देनेवाला हूँ। अब आप रोयें नहीं। आपका कल्याण हो ।।9।।

यस्य राष्ट्रे प्रजाः सर्वास्त्रस्यन्ते साध्व्यसाधुभिः
तस्य मत्तस्य नश्यन्ति कीर्तिरायुर्भगो गतिः 10
    

देवी ! जिस राजा के राज्य में दुष्टों के उपद्रव से सारी प्रजा त्रस्त रहती है उस मतवाले राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ।।10।।

एष राज्ञां परो धर्मो ह्यार्तानामार्तिनिग्रहः
अत एनं वधिष्यामि भूतद्रुहमसत्तमम् 11
    

राजाओं का परम धर्म यही है कि वे दुःखियों का दुःख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियों को पीड़ित करनेवाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूँगा ।।11।।

कोऽवृश्चत्तव पादांस्त्रीन्सौरभेय चतुष्पद
मा भूवंस्त्वादृशा राष्ट्रे राज्ञां कृष्णानुवर्तिनाम् 12
    

सुरभिनन्दन ! आप तो चार पैरवाले जीव हैं। आपके तीन पैर किसने काट डाले? श्रीकृष्ण के अनुयायी राजाओं के राज्य में कभी कोई भी आपकी तरह दुःखी न हो ।।12।।

आख्याहि वृष भद्रं वः साधूनामकृतागसाम्
आत्मवैरूप्यकर्तारं पार्थानां कीर्तिदूषणम् 13
    

वृषभ ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप जैसे निरपराध साधुओं का अंग-भंग करके किस दुष्ट ने पाण्डवों की कीर्ति में कलंक लगाया है? ।।13।।

जनेऽनागस्यघं युञ्जन्सर्वतोऽस्य च मद्भयम्
साधूनां भद्रमेव स्यादसाधुदमने कृते 14
    

जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टों का दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है ।।14।।

अनागःस्विह भूतेषु य आगस्कृन्निरङ्कुशः
आहर्तास्मि भुजं साक्षादमर्त्यस्यापि साङ्गदम् 15
    

जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दुःख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा ।।15।।

राज्ञो हि परमो धर्मः स्वधर्मस्थानुपालनम्
शासतोऽन्यान्यथाशास्त्रमनापद्युत्पथानिह 16
    

बिना आपत्तिकाल के मर्यादा का उल्लंघन करनेवालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्म में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ।।16।।

धर्म उवाच
एतद्वः पाण्डवेयानां युक्तमार्ताभयं वचः
येषां गुणगणैः कृष्णो दौत्यादौ भगवान्कृतः 17
    

धर्म ने कहा —– राजन ! आप महाराज पाण्डु के वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुःखियों को आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजों के श्रेष्ट गुणों ने भगवान् श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ।।17।।

न वयं क्लेशबीजानि यतः स्युः पुरुषर्षभ
पुरुषं तं विजानीमो वाक्यभेदविमोहिताः 18
    

नरेन्द्र ! शास्त्रों के विभिन्न वचनों से मोहित होने के कारण हम उस पुरुष को नहीं जानते, जिससे क्लेशों के कारण उत्पन्न होते हैं ॥18॥

केचिद्विकल्पवसना आहुरात्मानमात्मनः
दैवमन्येऽपरे कर्म स्वभावमपरे प्रभुम् 19
    

जो लोग किसी भी प्रकार के द्वैत को स्वीकार नहीं करते, वे अपन-आप ही अपने दुःख का कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्ध को कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्म को। कुछ लोग स्वभाव को, तो कुछ लोग ईश्वर को दुःख का कारण मानते हैं ।।19।।

अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः
अत्रानुरूपं राजर्षे विमृश स्वमनीषया 20
    

किन्हीं-किन्हीं का ऐसा भी निश्चय है कि दुःख का कर्ण न तो तर्क के द्वारा जाना जा सकता है और न वाणी के द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे ! अब इन्मों कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धि से ही विचार लीजिये ।।20।।

सूत उवाच
एवं धर्मे प्रवदति स सम्राड्द्विजसत्तमाः
समाहितेन मनसा विखेदः पर्यचष्ट तम् 21
    

सूतजी कहते हैं —– ऋषिश्रेष्ट शौनकजी ! धर्म का यह प्रवचन सुनकर सम्राट परीक्षित बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा —।।21।।

राजोवाच
धर्मं ब्रवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वृषरूपधृक्
यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत् 22
    

परीक्षित ने कहा —– धर्म का तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव ! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभ के रूप में स्वयं धर्म हैं। ( आपने अपने को दुःख देनेवाले का नाम इसलिये नहीं बताया है कि ) अधर्म करनेवाले को जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवाले को भी मिलते हैं ।।22।।

अथवा देवमायाया नूनं गतिरगोचरा
चेतसो वचसश्चापि भूतानामिति निश्चयः 23
    

अथवा यही सिद्धांत निश्चित है कि प्राणियों के मन और वाणी से परमेश्वर की माया के स्वरुप का निरूपण नहीं किया जा सकता ।।23।।

तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः कृते कृताः
अधर्मांशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसङ्गमदैस्तव 24
    

धर्मदेव ! सत्ययुग में आपके चार चरण थे— तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्म के अंश गर्व, आसक्ति और मद से तीन चरण नष्ट हो चुके हैं ।।24।।

इदानीं धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः
तं जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनैधितः कलिः 25
    

अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बलपर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ।।25।।

इयं च भूमिर्भगवता न्यासितोरुभरा सती
श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः सर्वतः कृतकौतुका 26
    

ये गौं माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान् ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशी-राशी सौन्दर्य बिखेरनेवाले चरणचिन्हों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं।।26।।

शोचत्यश्रुकला साध्वी दुर्भगेवोज्झिता सती
अब्रह्मण्या नृपव्याजाः शूद्रा भोक्ष्यन्ति मामिति 27
    

जब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी अभागिनी के समान नेत्रों में जल भरकर यह चिंता कर रही है कि  अब राजा का स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शुद्र मुझे भोगेंगे ।।27।।

इति धर्मं महीं चैव सान्त्वयित्वा महारथः
निशातमाददे खड्गं कलयेऽधर्महेतवे 28
    

महारथी परीक्षित ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सांत्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को मारने के लए तीक्ष्ण तलवार उठायी ।।28।।

तं जिघांसुमभिप्रेत्य विहाय नृपलाञ्छनम्
तत्पादमूलं शिरसा समगाद्भयविह्वलः 29
    

कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अतः झटपट उसने अपने राजचिन्ह उतार डाले और भयविव्हल होकर उनके चरणों में अपना सर रख दिया ।।29।।

पतितं पादयोर्वीरः कृपया दीनवत्सलः
शरण्यो नावधीच्छ्लोक्य आह चेदं हसन्निव 30
    

परीक्षित बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुग को अपने पैरों पर पड़े देखा तो कृपा करके उसकों मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा ।।30।।

राजोवाच
न ते गुडाकेशयशोधराणां बद्धाञ्जलेर्वै भयमस्ति किञ्चित्
न वर्तितव्यं भवता कथञ्चन क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धुः 31
    

परीक्षित बोले—- जब तू हाथ जोड़कर शरण आ गया, तब अर्जुन के यशस्वी वंश में उत्पन्न हुए किसी भी वीर से तुझे कोई बे नहीं है। परन्तु तू अधर्म का सहायक हैं, इसलिये तुझे मेरे राज्य में बिलकुल नहीं रहना चाहिये।।31।।

त्वां वर्तमानं नरदेवदेहेष्वनुप्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः
लोभोऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो ज्येष्ठा च माया कलहश्च दम्भः 32
    

तेरे राजाओं के शरीर में रहने से ही लोभ,झूठ,चोरी,दुष्टता, स्वधर्मत्याग,दरिद्रता,कपट,कलह,दम्भ और दूसरे पापों की बढ़ती हो रही है ।।32।।

न वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये
ब्रह्मावर्ते यत्र यजन्ति यज्ञैर्यज्ञेश्वरं यज्ञवितानविज्ञाः 33
    

अतः अधर्म के साथी ! इस ब्रह्मावर्त में तू एक क्षण के लिए भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्य का निवास स्थान है। इस क्षेत्र में यज्ञविधि दे जाननेवाले महात्मा यज्ञों के द्वारा यज्ञपुरुष भगवान् की आराधना करते रहते हैं ।।33।।

यस्मिन्हरिर्भगवानिज्यमान इज्यात्ममूर्तिर्यजतां शं तनोति
कामानमोघान्स्थिरजङ्गमानामन्तर्बहिर्वायुरिवैष आत्मा 34
    

इस देश में भगवान् श्रीहरि यज्ञों के द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालों का कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान् वायु की भाँति समस्त चराचर जीवों के भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओं को पूर्ण करते रहते हैं ।।34।।

सूत उवाच
परीक्षितैवमादिष्टः स कलिर्जातवेपथुः
तमुद्यतासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम् 35
    

सूतजी कहते हैं—- परीक्षित की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराज के समान मारने के लिए उद्यत,हाथ में तलवार लिये हुए परीक्षित से वह बोला—।।35।।

कलिरुवाच
यत्र क्व वाथ वत्स्यामि सार्वभौम तवाज्ञया
लक्षये तत्र तत्रापि त्वामात्तेषुशरासनम् 36
    

कलि ने कहा— सार्वभौम ! आपकी आज्ञा से जहाँ कहीं भी मैं रहने का विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं ।।36।।

तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निर्देष्टुमर्हसि
यत्रैव नियतो वत्स्य आतिष्ठंस्तेऽनुशासनम् 37
    

धार्मिकशिरोमणे ! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ।।37।।

सूत उवाच
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः 38
    

सूतजी कहते हैं—– कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित ने उसे चार स्थान दिये—द्युत,मद्यपान,स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमशः असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता— ये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं ।।38।।

पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः
ततोऽनृतं मदं कामं रजो वैरं च पञ्चमम् 39
    

उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित ने उसे रहने के लिए एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन) दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये झूठ,मद,काम,वैर और रजोगुण ।।39।।

अमूनि पञ्च स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः
औत्तरेयेण दत्तानि न्यवसत्तन्निदेशकृत् 40
    

परीक्षित के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा ।।40।।

अथैतानि न सेवेत बुभूषुः पुरुषः क्वचित्
विशेषतो धर्मशीलो राजा लोकपतिर्गुरुः 41
    

इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजावर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ।।41।।

वृषस्य नष्टांस्त्रीन्पादान्तपः शौचं दयामिति
प्रतिसन्दध आश्वास्य महीं च समवर्धयत् 42
    

राजा परीक्षित ने इसके बाद वृषभरूप धर्म के तीनों चरण-तपस्या,शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वी का संवर्धन किया ।।42।।

स एष एतर्ह्यध्यास्त आसनं पार्थिवोचितम्
पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञारण्यं विविक्षता 43
    

वे ही महाराजा परीक्षित इस समय अपने राजसिंहासनपर,जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्टिर ने वन में जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं ।।43।।

आस्तेऽधुना स राजर्षिः कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन्
गजाह्वये महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः 44
    

वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट राजर्षि परीक्षित इस समय हस्तिनापुर में कौरव-कुल की राज्यलक्ष्मी से शोभायमान हैं ।।44।।

इत्थम्भूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो नृपः
यस्य पालयतः क्षौणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः 45

अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित वास्तव में ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकाल में आपलोग इस दीर्घकालीन यज्ञ के लिये दीक्षित हुए हैं ।।45।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायाम् प्रथमस्कन्धे कलिनिग्रहो नाम सप्तदशोऽध्यायः ।।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here