कर्म की परिभाषा तथा कर्म और ज्ञान में अंतर।।

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Karma Ki Paribhasha Aur Gyan
Karma Ki Paribhasha Aur Gyan

कर्म की परिभाषा तथा कर्म और ज्ञान में अंतर।। Karma Ki Paribhasha Aur Gyan.

जय श्रीमन्नारायण,

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः॥ (गीता अ.४.श्लोक.१९.)

अर्थ:- जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं। तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं। उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।।१९।।

गीता के इस श्लोक में भगवान आखिर बताना क्या चाहते हैं? वैसे यह बात तो पूर्ण सत्य है। लेकिन समझने वाली बात यह है, कि जिसके कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं। अब प्रश्न यह उठता है, कि कैसे कर्म? उत्तर है – शास्त्र सम्मत कर्म। दूसरी बात यह है, जिसके समस्त कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में जलकर भस्म हो चुके हों। भाई जी ज्ञान रूपी अग्नि और समस्त कर्म जलकर भस्म हो जाय, ये कुछ अंदर नहीं बैठ रहा है – जरा स्पष्ट करें।।

यहाँ सबसे पहले हमें कर्म की परिभाषा को जानने की आवश्यकता है। हिंदी व्याकरण में तीसरी या चौथी कक्षा में पढ़ाई जाती थी। आप सभी को पता ही होगा कर्म किसे कहते हैं? चलिए मैं बता देता हूँ, कर्म की परिभाषा यह है, कि किसी भी कर्ता के द्वारा किसी भी कार्य को संपादित किया जाए, उसे कर्म कहते हैं। अब यहाँ स्पष्ट है, कि किसी भी कर्ता अर्थात कर्ता कोई भी हो सकता है। आप, हम या समाज में जितने भी लोग हैं। सभी कोई ना कोई कार्य करते हैं।।

इस प्रकार ऐसे लोग कर्ता हुए। इसी तरह कार्य कोई भी हो सकता है। जैसे सुबह बिस्तर से जगना और वहां से लेकर दिनभर रात्रि शयन पर्यंत जो कुछ भी कार्य करते हैं। वह सारे कृत्य कर्म के अंतर्गत आते हैं। आजकल कुछ लोग कर्म की परिभाषा इतना ही करते हैं, कि किसी भी तरह अर्थात येन केन प्रकारेण पैसा कमा लिया जाए उसको ही कर्म समझते हैं। परंतु यह बहुत बड़ा भ्रम है। कर्म की परिभाषा इतनी ही नहीं है। कर्म का मतलब सब कुछ होता है।।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥ (गीता अ.४.श्लोक.१७.)

अर्थ:- कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म की बहुत विस्तृत व्याख्या करी है। कर्माऽकर्मविकर्मेति वेदवादो न लौकिक: अर्थात भगवान ने कहा है, कि कर्म अकर्म और विकर्म ये कई प्रकार के होते हैं। सुबह उठना, नहा धोकर किसी भी मंदिर में जाकर किसी भगवान का दर्शन करना। यह भी एक कर्म है। साथ ही देवालय जाना भी एक कर्म है। वही सुबह उठकर मदिरालय जाना भी एक कर्म है। परंतु दोनों में अंतर क्या है? एक सत्कर्म है तो दूसरा दुष्कर्म है।।

अब समझना हमें है, कि शास्त्रानुसार सत्कर्म का परिणाम सद्भाग्य होता है तथा दुष्कर्म का परिणाम दुर्भाग्य होता है। केवल सुबह जग कर पैसे कमाने के लिए आप भागते हैं यही सम्पूर्ण कर्म नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, कि महाराज हम तो किसी का कुछ बिगड़ते नहीं है। बस अपना कर्म करते हैं और किसी के विषय में गलत सोचते भी नहीं है। परंतु प्रकृति ने सब को एक दूसरे को जोड़ कर रखा हुआ है। आप कुछ करो या न करो आपसे अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्म निश्चित रुप से होते ही हैं।।

अब आप अपना काम करने के लिए अर्थात पैसा कमाने के लिए घर से निकलते हो। ऑफिस जाते हो। आप के चलने में भी आपके पैरों के नीचे न जाने कितने प्रकार के कीटाणु दबकर मर जाते हैं। उनके लिए आपने क्या किया? इस प्रकृति पर जितना हक आपका है उतना ही हक उस जीवाणु का भी है। जो निर्दोष था और आपके अपने कमाने खाने और बाल बच्चों के पोषण हेतु जाने में आपके पैरों के नीचे दबकर मर गया। उसका क्या कसूर था? आप दोषी हुए कि नहीं हुए निर्णय आपका है।।

आपने इस कर्म के बदले प्रकृति को क्या दिया? आप किसी फैक्ट्री में काम करते हैं, बहुत अच्छी बात है। लेकिन फैक्ट्री के मालिक ने एक फैक्ट्री बनाई उसमें कुछ पूंजी लगाया। आपको भी सैलरी पर रखा। इसलिए नहीं कि आप आओ और ड्यूटी बजा कर चले जाओ। इसलिए कि आपके ड्यूटी के बदले उसको भी कुछ मिले। उसको भी कुछ फायदा हो। अगर उसको फायदा नहीं होगा तो आपको रखने का कोई मतलब नहीं होगा। उसी तरह ईश्वर ने प्रकृति बनाई और इसमें ऑक्सीजन का एक भंडार दिया। आप सुबह जगते हो दिनभर 24 घंटे यह धौंकनी चलती रहती है।।

यह जो मुफ्त में ऑक्सीजन मिल रही है इसके बदले आपने प्रकृति को क्या दिया? अगर एक दिन ऐसा आएगा जब प्रकृति के इस ऑक्सीजन का भंडार खाली हो जाएगा तब आप क्या करोगे? कहां जाओगे? किसी भी विस्तार का एक नियम होता है। उस नियम का उल्लंघन करोगे तो निश्चित रूप से दंड के पात्र बनोगे। सरकार भी है तो उसके भी संविधान है। उसी तरह प्रकृति का भी एक नियम एक सिद्धांत है।।

उन सिद्धांतों का उल्लंघन करके जीवन में आप कब तक सुखी रह पाओगे? इसलिए सुखी रहना है तो प्रकृति के नियमों का पालन करना ही होगा। शास्त्रों के सिद्धांतों को मानना ही पड़ेगा। केवल इह लोक अथवा लौकिक नजरिए से ही नहीं अपितु अलौकिक तथा पारलौकिक सुख की प्राप्ति हेतु भी यह करना अनिवार्य है। हमारे शास्त्रों में तो पारलौकिक सिद्धान्तों को मानकर हमारे पूर्वज ऋषियों ने ईश्वर का साक्षात्कार तक किया है।।

अब ये विषय तो स्पष्ट ही है, समस्त कर्म अर्थात कोई भी कर्म। मतलब सुबह से शाम तक, सोने से खाने तक, लैट्रिन से लेकर बाथरूम तक, फैक्टरी कि नौकरी से लेकर श्रीमती जी के आज्ञा पालन तक। अर्थात कोई भी कर्म मतलब कोई भी कर्म। सब कुछ शास्त्रसम्मत हो मतलब जिस कर्म कि इजाजत शास्त्र नहीं देते वो कर्म नहीं करना यही ज्ञान है। और ये ज्ञान रूपी अग्नि जिसके अंदर समा जाय अर्थात आ जाय। फिर इस अग्नि से सम्पूर्ण कर्तब्य कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं।।

फिर वो पुरुष नहीं रह जाता — बल्कि — महापुरुष — हो जाता है। और फिर बड़े से बड़ा ज्ञानी भी उसके सन्मुख नतमस्तक हो जाते हैं। अर्थात ऐसा व्यक्ति भगवत्स्वरूप हो जाता है।।

नारायण आप सभी मित्रों कि रक्षा सदैव करें। वेंकटेश स्वामी से ये हमारी प्रार्थना है।।

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नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।

।। नमों नारायण ।।

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भागवत प्रवक्ता- स्वामी धनञ्जय जी महाराज "श्रीवैष्णव" परम्परा को परम्परागत और निःस्वार्थ भाव से निरन्तर विस्तारित करने में लगे हैं। श्रीवेंकटेश स्वामी मन्दिर, दादरा एवं नगर हवेली (यूनियन टेरेटरी) सिलवासा में स्थायी रूप से रहते हैं। वैष्णव धर्म के विस्तारार्थ "स्वामी धनञ्जय प्रपन्न रामानुज वैष्णव दास" के श्रीमुख से श्रीमद्भागवत जी की कथा का श्रवण करने हेतु संपर्क कर सकते हैं।।

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