देवउठनी एकादशी व्रत कथा एवं विधि।।

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Deva Uthani Ekadashi Vrat
Deva Uthani Ekadashi Vrat

देवोत्थान, देवठन अथवा देव उठनी एकादशी माहात्म्य तथा व्रत एवं पूजा विधि।। Deva Uthani Ekadashi Vrat Mahatmya Katha.

जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, देवशयनी एकादशी के बाद भगवान श्री हरि यानि की विष्णु जी चार मास के लिये शयन करते हैं। जिसे चातुर्मास कहा जाता है। इन चार मास के उपरान्त जिस दिन वे अपनी निद्रा से जागते हैं उसे देवउठनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। यह दिन अपने आप में बहुत ही भाग्यशाली होता है। आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान शयन करते हैं उसे देवशयनी कहा जाता है।।

भगवान जिस दिन निद्रा का परित्याग कर जगते हैं। उसे देवोत्थान एकादशी अथवा देव उठनी तथा प्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी ही वह शुभ दिन होता है जब भगवान विष्णु जगते हैं। आइये जानते हैं देवउठनी एकादशी के व्रत, उसकी कथा एवं उसके महत्व के बारे में। देवउठनी एकादशी की व्रत कथा कुछ इस प्रकार है।।

मित्रों, हमारे पौराणिक ग्रंथों में सभी एकादशियों का अपना-अपना महत्व है। परन्तु कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी विशेष एकादशियों में से एक होती है। देवउठनी एकादशी को लेकर कई व्रत कथाएं प्रचलित हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं। एक बार की बात है माता लक्ष्मी ने भगवान श्री विष्णु से कहा कि प्रभु आप या तो दिन रात जागते रहते हैं या फिर लाखों करोड़ों वर्ष तक सोते रहते हैं। और शयन काल में सृष्टि का भी विनाश कर डालते हैं।।

इसलिये हे नाथ आपको हर साल नियमित रूप से निद्रा लेनी चाहिये। तब श्री हरि बोले देवी आप ठीक कहती हैं। मेरे जागने का सबसे अधिक कष्ट आपको ही सहन करना पड़ता है। आपको क्षण भर के लिये भी मेरी सेवा करने से फुर्सत नहीं मिलती है। आपके कथनानुसार मैं अब से प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु में चार मास तक के लिये शयन किया करूंगा। ताकि आपको और समस्त देवताओं को भी कुछ अवकाश मिले।।

मित्रों, भगवान ने कहा मेरी यह निद्रा अल्पकालीन एवं प्रलयकारी महानिद्रा कहलायेगी। मेरी इस निद्रा के दौरान जो भी भक्त भावना पूर्वक मेरी सेवा करेंगें और मेरे शयन एवं जागरण को उत्सव के रूप में मनाते हुए विधिपूर्वक व्रत, उपवास एवं दान-पुण्य करते रहेंगें उनके यहां मैं आपके साथ निवास करूंगा। तभी से आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान का शयन और कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवान का जागरण होता है।।

दूसरी कथा है, कि एक बार की बात है, कि एक बहुत ही धर्म पुण्य करने वाले राजा हुआ करते थे। परन्तु वो राजा धर्म के साथ ही धर्म का दिखावा धर्म से कुछ ज्यादा ही करते थे। कई बार तो अपनी प्रजा के साथ जबरदस्ती भी कर दिया करते थे। एकादशी पर किसी भी घर में अन्न पकना तो दूर दुकानों पर अन्न को बेचने तक के लिये राजा ने मना कर दी थी।।

मित्रों, एकबार एक व्यक्ति उनके यहां नौकरी के लिये आया। राजा ने उसके सामने शर्त रखी की वह जो भी खाने को देगा उसे उसी का आहार करना होगा। वैसे तो राजा जो कहता है वह प्रजा को मानना ही पड़ता है। फिर इस शख्स को तो रोजगार की भी जरुरत थी। इसलिये उसने हामी भर दी। अब वह मन लगाकर काम करता राजा भी उसके काम से प्रभावित था। इसलिये उसे ठीक-ठाक भोजन भी मिलता था।।

एक बार एकादशी के दिन की बात है, कि पूरे राज्य में अन्न ग्रहण न करने की घोषणा करवा दी। अब वह व्यक्ति कड़ा परिश्रम करता था। लेकिन वह भगवान विष्णु का भक्त भी था पर उपवास उसके बस की बात नहीं थी। एकादशी के दिन राजा ने उसे फलाहार करने को कही तो उसने अन्न की मांग की। अब राजा ने उससे कहा कि जो मैं तुम्हें दे रहा हूं उसी को ग्रहण करना पड़ेगा। तुम्हें इसी शर्त पर यहां रखा गया था।।

मित्रों, इसपर उस नौकर ने कहा महाराज आप चाहे और कुछ भी कहें। पर भूख मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। तब राजा ने उसके काम को देखते हुए उसे अन्न दे दिया। अब वह नित्य की तरह नदी किनारे जाकर अपना भोजन बनाकर भगवान का आह्वान करता। और भोग लगाने की कहता था। भगवान भी प्रकट हुए और उसके साथ भोजन कर अंतर्धान हो गये। पंद्रह दिन बाद फिर एकादशी का व्रत आया।।

इस बार उसने राजा से दुगूना अन्न देने की कही। और कहा कि स्वंय भगवान मेरे साथ भोजन करते हैं। इसलिये हम दोनों के लिये यह कम पड़ता है। राजा ने सोचा कि इसका मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ है। उसे लगभग धमकाते हुए उच्च स्वर में कहा कि मुझे इतने साल हो गये उपवास और धर्म के कार्य करते हुए मुझे तो भगवान ने कभी दर्शन नहीं दिये। और तेरे साथ वे भोजन करते हैं।।

मित्रों, नौकर ने कहा महाराज मैं झूठ नहीं बोल रहा। यदि यकीन नहीं आता तो आप स्वयं चलकर देख लें। जैसे तैसे राजा ने फिर उसे भोजन दे दिया। लेकिन इस बार कहा कि अगर जो तुम कह रहे हो वह सच न हुआ तो फिर इसका अंजाम भुगतने के लिये भी तैयार रहना। नौकर ने जाकर भोजन पकाया और भगवान का आह्वान करने लगा। राजा भी पेड़ के पिछे से उस पर नजर रख रहा था। परन्तु भगवान प्रकट नहीं हुए।।

उस व्यक्ति ने विवश होकर संकल्प किया कि प्रभु यदि आपने भोजन ग्रहण नहीं किया तो मैं यहीं नदी में कूदकर अपने प्राण त्याग दूंगा। भगवान अब भी प्रकट नहीं हुए। वह जैसे ही दृढनिश्चय के साथ अपने प्राण त्यागने के लिये नदी की ओर बढ़ा तो भगवान प्रकट हुए। और हमेशा की तरह उसके साथ बैठकर भोजन करने लगे। इस सारे घटनाक्रम को देखकर राजा की समझ में आ गया कि यह सब भगवान की ही माया है।।

मित्रों, राजा ने सोंचा भगवान मुझे समझाने की कोशिश कर रहे हैं, कि सच्ची श्रद्धा से किया गया धर्मकार्य ही फलदायी होता है। इसके बाद राजा भी सच्ची श्रद्धा से भगवद् भक्ति में लीन हो गये। और अंतकाल में मोक्ष को प्राप्त किया। राजा की सच्ची निष्ठा को उस नौकर ने जगाया। और नौकर से सिख लेकर राजा निष्ठावान धर्मज्ञ बन गया। भगवान की सेवा सच्ची निष्ठा से की जाय तो तत्क्षण फलदायी होती ही है।।

देवउठनी एकादशी व्रत कथा इस प्रकार है। एक राजा बहुत ही पुण्यात्मा और भगवान श्री हरि के सच्चे भक्त थे। उनके राज्य में उनकी प्रजा सभी प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी। एक बार भगवान ने इनकी परीक्षा लेने का विचार बनाया और एक सुंदर स्त्री का वेश धारण कर आये। जिस सड़क से राजा का गुजरता था वहीं बैठ गये। अब उधर से गुजरते हुए जब राजा की नजरें उस स्त्री पर पड़ी तो उसे ही निहारते रह गये।।

मित्रों, उन्होंने उसके सड़क पर होने का कारण पूछा। तब स्त्री बने भगवान नारायण ने कहा कि वह निराश्रित है उसका कोई नहीं बचा है। उनकी बात सुनकर राजा ने उसे अपनी रानी बनने का प्रस्ताव रखा। अब राजा को अपने जाल में फंसता देखकर उसने कहा कि आपकी रानी तो मैं बन जाऊंगी लेकिन आपको अपने राज्य की बागडोर मेरे हाथों में सौंपनी होगी। और मैं जो कहूंगी वही खाना पड़ेगा।।

रूप के आकर्षण में राजा की आंखे बंद हो चुकी थी। और गर्दन थी की हां में ही हिलती जा रही थी। राजा उसे अपने राजमहल में ले आये। संयोग वश अगले ही दिन एकादशी का व्रत था। एकादशी पर नई रानी ने आदेश दिया कि जैसे रोज अन्न का व्यापार और आहार होता है एकादशी को भी वैसा ही हो। राजमहल में मांसाहारी भोजन बनवाकर राजा के सामने प्रस्तुत कर दिया।।

मित्रों, अब राजा दुविधा में पड़ गया और बोला कि आज एकादशी है। और इस दिन मैं भगवान श्री विष्णु की भक्ति करता हूं। एकादशी के उपवास के दौरान मैं केवल फलाहार ही करता हूं। यह सुनकर रानी ने राजा को अपने वचन की याद दिलाई। रानी ने कहा कि मैं आपको सिर्फ एक शर्त पर ही ऐसा करने दे सकती हूं। शर्त यह है, कि आज आप फलाहार करें मैं नहीं रोकूंगी। पर उसके बदले में मुझे आपके बेटे का सर चाहिये।।

अब राजा के समक्ष और बड़ी दुविधा थी। उसने कहा कि मैं बड़ी रानी से सलाह लेने के बाद ही आपको कुछ कह पाऊंगा। अपने धर्म पर आन खड़े हुए इस संकट के बारे में जब राजा ने बड़ी रानी को बताया तो रानी ने कहा कि भगवान ने चाहा तो पुत्र और मिल जायेंगे। परन्तु आपने अपना धर्म भ्रष्ट कर लिया तो फिर कहीं के नहीं रह जायेंगे। रानी रोने लगी कि तभी शिकार खेल कर लौटे राजकुमार ने अपनी माता से रोने का कारण पूछा।।

मित्रों, रानी ने सारा वृतांत अपने बेटे को भी कह सुनाया। पिता के धर्म की रक्षा के लिये लड़का भी अपने बलिदान के लिये तैयार हो गया। अब धर्म को लेकर पूरे परिवार की निष्ठा को देखते हुए भगवान श्री हरि भी अपने वास्तिविक रूप में आ गये। और राजा से वर मांगने को कहा। राजा ने कहा प्रभु आपका दिया सब कुछ है बस हमारा उद्धार करें। तब अपने राजपाट की बागडोर पुत्र के हाथों सौंपकर राजा भगवान विष्णु के साथ बैकुंठ प्रस्थान कर गये।।

देव उठनी एकादशी के दिन ही भगवान श्री हरि के शालीग्राम रूप का विवाह तुलसी के साथ किया जाता है। तुलसी को विष्णुप्रिया भी कहा जाता है। मान्यता है, कि जब श्री हरि जागते हैं तो वे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। दरअसल यहां तुलसी के माध्यम से श्री हरि का आवाहन किया जाता है। अपने जीवन को उल्लासमय बनाने और परमानंद की प्राप्ति के लिये तुलसी विवाह का आयोजन किया जाता है।।

जिन दंपतियों को कोई संतान नहीं होती अथवा नहीं है। उन्हें अपने जीवन में एक बार तुलसी विवाह करके कन्यादान अवश्य करना चाहिये। असल में तुलसी को जड़ रूप होने का श्राप मिला था। जिसकी अलग-अलग पौराणिक कथाएं मिलती हैं। इस एकादशी के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर सर्वप्रथम नित्यक्रिया से निवृत होकर स्नानादि कर स्वच्छ हो लेना चाहिये।।

मित्रों, स्नान किसी पवित्र धार्मिक तीर्थ स्थल, नदी, सरोवर अथवा कुंए पर किया जाये तो सर्वोत्तम अन्यथा घर पर भी स्वच्छ जल से स्नान किया जा सकता हैं। स्नानादि के पश्चात निर्जला व्रत का संकल्प लेकर भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिये। सूर्योदय के समय सूर्य देव को अर्घ्य देकर पूजन करें। तदुपरान्त संध्या काल में शालिग्राम रूप में भगवान श्री हरि का पूजन करें और माता तुलसी का विवाह भी इसी दिन संपन्न करवायें।।

तुलसी का विवाह एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक किसी भी दिन करवाया जा सकता है। ज्यादातर लोग एकादशी और द्वादशी को ही भगवान शालिग्राम के साथ माता तुलसी का विवाह करवाते हैं। रात्रि में जागरण करना चाहिये तथा व्रत का पारण अगले दिन द्वादशी में ही एकादशी का पारण करना चाहिये। प्रात: काल ब्राह्मण को भोजन करवायें एवं दान-दक्षिणा देकर विदा करने के बाद ही पारण करें। शास्त्रों में व्रत का पारण तुलसी के पत्ते से भी करने का विधान है।।

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।

।। नमों नारायण ।।

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भागवत प्रवक्ता- स्वामी धनञ्जय जी महाराज "श्रीवैष्णव" परम्परा को परम्परागत और निःस्वार्थ भाव से निरन्तर विस्तारित करने में लगे हैं। श्रीवेंकटेश स्वामी मन्दिर, दादरा एवं नगर हवेली (यूनियन टेरेटरी) सिलवासा में स्थायी रूप से रहते हैं। वैष्णव धर्म के विस्तारार्थ "स्वामी धनञ्जय प्रपन्न रामानुज वैष्णव दास" के श्रीमुख से श्रीमद्भागवत जी की कथा का श्रवण करने हेतु संपर्क कर सकते हैं।।

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