कर्म और पाखण्ड में क्या भेद है।। Karm Aur Pakhand Me Bhed.
जय श्रीमन्नारायण,
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ (गीता – अ.४/श्लोक.१४.)
अर्थ-: कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता॥14॥
यहाँ प्रश्न यह उठता है, कि भगवान यहाँ जिस तत्वज्ञान की बात करते हैं, वो तत्वज्ञान है, क्या? लोग कहते हैं, की फलां व्यक्ति बहुत बड़ा ज्ञानी है। ज्ञानी होना बहुत गर्व का विषय है, इसमें कोई संसय नहीं। लेकिन मुझे लगता है, कि परमात्मा को जानने से पहले उसके द्वारा दर्शाए गए आचरणों को समझना होगा।।
आचरण क्या है? मूलत: जो हम करते हैं, उसे ही आचरण कहा जाता है। तो परमात्मा करता क्या है – यहाँ के विषयानुसार – न मां कर्माणि लिम्पन्ति – कर्म मुझे लिप्त अर्थात बांधते नहीं, और न में कर्मफले स्पृहा। अर्थात- ये करूँगा तो वो मिल जायेगा, वो करूँगा तो वो मिल जायेगा, ऐसा कभी मैं सोंचता नहीं।।
तो ये है, परमात्मा का आचरण। अब हम भी अगर इसे जानकर और इसी प्रकार अपने जीवन में उतार लेते हैं, तो परमात्मा को तत्व से जानने के अधिकारी हो जाते हैं। और तब हम कर्म करते हुए भी कर्मासक्ति से बंधते नहीं और कर्म का फल देने देवता स्वयं चलकर आते हैं।।
लेकिन अगर हम चाहते हैं धन और बातें करते हैं, सन्यासियों वाली, तो हम पाखंडी हैं। और पाखंड का अंत दुर्दशा से होता है। तथा ठीक इसके विपरीत अगर हम चाहते मोक्ष हैं, और कर्मयोग को अपनाकर अपना जीवन यापन करते हैं, तो ये सन्यास है, और मुक्ति उसके चरणों कि दासी। अगर आपको धन कि इच्छा है, तो कोई बुराई नहीं है। आप देव पूजन करके अतुलनीय धन प्राप्त कर सकते हैं। और ये रास्ता आपके कल्याण का भी है।।
आप सभी अपने मित्रों को फेसबुक पेज को लाइक करने और संत्संग से उनके विचारों को धर्म के प्रति श्रद्धावान बनाने का प्रयत्न अवश्य करें।।
नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।
जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।
।। नमों नारायण ।।