मोहिनी एकादशी व्रत कथा एवं पूजा विधि।।

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Mohini Ekadashi Vrat
Mohini Ekadashi Vrat

मोहिनी एकादशी व्रत कथा एवं पूजा विधि।। Mohini Ekadashi Vrat Katha And Pooja Vidhi.

जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, शास्त्रों के अनुसार वैशाख मास को बहुत ही पवित्र एवं पावन बताया गया है। इसी कारण इस माह में पड़ने वाली एकादशी भी बहुत ही पुण्य फलदायी मानी जाती है। वैशाख शुक्ल एकादशी को मोहिनी एकादशी कहा जाता है। मान्यता है, कि इस एकादशी के व्रत से व्रती मोह माया से ऊपर उठ जाता है। साथ ही इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है। वैशाख शुक्ल एकादशी को मोहिनी एकादशी क्यों कहा जाता है? तथा इस एकादशी के व्रत की कथा एवं पूजा विधि क्या है?

वैशाख शुक्ल एकादशी को क्यों कहा जाता है मोहिनी एकादशी? Mohini Ekadashi kyon Kaha Jata Hai.

मान्यता है, कि वैशाख शुक्ल एकादशी के दिन ही भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया था। भगवान विष्णु ने सुमुद्र मंथन के दौरान प्राप्त हुए अमृत को देवताओं में वितरीत करने के लिये मोहिनी का रूप धारण किया था। कहा जाता है, कि जब समुद्र मंथन हुआ तो अमृत प्राप्ति के बाद देवताओं एवं असुरों में आपाधापी मच गई थी। चूंकि ताकत के बल पर देवता असुरों को हरा नहीं सकते थे।।

इसलिये भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर असुरों को अपने मोहपाश में बांध लिया। उसके बाद अमृत का पान देवताओं को करवा दिया। जिससे देवताओं ने अमरत्व प्राप्त किया। वैशाख शुक्ल एकादशी के दिन चूंकि यह सारा घटनाक्रम हुआ था। इसीलिये इस वैशाख शुक्ल एकादशी को मोहिनी एकादशी कहा जाता है।।

मोहिनी एकादशी व्रत कथा।। Mohini Ekadashi Vrat Katha.

मोहिनी एकादशी की व्रत कथा इस प्रकार है। कहते हैं, किसी समय में भद्रावती नामक एक बहुत ही सुंदर नगर हुआ करता था। जहां धृतिमान नामक राजा राज किया करते थे। राजा बहुत ही पुण्यात्मा थे। उनके राज में प्रजा भी धार्मिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर भाग लेती। इसी नगर में धनपाल नाम का एक वैश्य भी रहता था। धनपाल वैश्य भगवान विष्णु के परम भक्त और एक पुण्यात्मा सेठ थे। भगवान विष्णु की कृपा से इनकी पांच संतान थी।।

इनके सबसे छोटे पुत्र का नाम धृष्टबुद्धि था। उसका यह नाम उसके धृष्टकर्मों के कारण ही पड़ा था। बाकि चार पुत्र पिता की तरह बहुत ही नेक थे। लेकिन धृष्टबुद्धि ने कोई ऐसा पाप कर्म नहीं छोड़ा जो उसने न किया हो। तंग आकर पिता ने उसे बेदखल कर दिया। भाईयों ने भी ऐसे पापी भाई से नाता तोड़ लिया। जो धृष्टबुद्धि पिता एवं भाइयों की मेहनत पर ऐश करता था। परन्तु भाइयों एवं पिता के त्याग देने के बाद अब वह दर-दर की ठोकरें खाने लगा।।

ऐसे में उसे ऐशो आराम तो दूर खाने के लाले पड़ गये। किसी पूर्वजन्म के पुण्यकर्म ही होंगे कि वह भटकते-भटकते कौण्डिल्य ऋषि के आश्रम में पंहुच गया। जाकर महर्षि के चरणों में गिर पड़ा। पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए वह कुछ-कुछ पवित्र भी होने लगा था। महर्षि को अपनी पूरी व्यथा बताई और पश्चाताप का उपाय जानना चाहा। उस समय ऋषि-मुनि शरणागत का मार्गदर्शन अवश्य किया करते थे। पातक को भी मोक्ष प्राप्ति के उपाय बता दिया करते थे।।

इस धृष्टबुद्धि से कौण्डिल्य ऋषि ने कहा, कि वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी बहुत ही पुण्य फलदायी होती है। इस व्रत का उपवास करो। इसके करने से तुम्हें मुक्ति अवश्य मिल जायेगी। धृष्टबुद्धि ने महर्षि की बताई विधिनुसार वैशाख शुक्ल एकादशी यानि मोहिनी एकादशी का उपवास किया। इसके बाद उसे पापकर्मों से छुटकारा मिला और मोक्ष की प्राप्ति हुई।।

मोहिनी एकादशी व्रत का माहात्म्य एवं पूजा विधि।। Mohini Ekadashi Vrat Puja Vidhi.

मोहिनी एकादशी का बहुत ही माहात्म्य है। कहा जाता है, कि माता सीता के विरह से पीड़ित भगवान श्री राम ने और महाभारत काल में युद्धिष्ठिर ने भी अपने दु:खों से छुटकारा पाने के लिये इस एकादशी का व्रत विधि विधान से किया था। एकादशी व्रत के लिये व्रती को दशमी तिथि से ही नियमों का पालन करना चाहिये। दशमी तिथि को एक समय ही सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिये। ब्रह्मचर्य का पूर्णत: पालन करना चाहिये।।

एकादशी से दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि करके स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिये। इसके पश्चात लाल वस्त्र से सजाकर कलश स्थापना कर भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिये। दिन में व्रती को मोहिनी एकादशी की व्रत कथा का सुननी या पढ़नी चाहिये। रात्रि के समय भगवान श्री हरि का स्मरण करते हुए, भजन कीर्तन करते हुए जागरण करना चाहिये। द्वादशी के दिन एकादशी व्रत का पारण किया जाता है। सर्व प्रथम भगवान की पूजा कर किसी योग्य ब्राह्मण को भोजनादि करवाकर दान दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिये। इसके पश्चात ही स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिये।।

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जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।

।। नमों नारायण ।।

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भागवत प्रवक्ता- स्वामी धनञ्जय जी महाराज "श्रीवैष्णव" परम्परा को परम्परागत और निःस्वार्थ भाव से निरन्तर विस्तारित करने में लगे हैं। श्रीवेंकटेश स्वामी मन्दिर, दादरा एवं नगर हवेली (यूनियन टेरेटरी) सिलवासा में स्थायी रूप से रहते हैं। वैष्णव धर्म के विस्तारार्थ "स्वामी धनञ्जय प्रपन्न रामानुज वैष्णव दास" के श्रीमुख से श्रीमद्भागवत जी की कथा का श्रवण करने हेतु संपर्क कर सकते हैं।।

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