उषाकाल में जागने के फायदे-सामवेद।। Pratah Jagne Ka Labh-Samveda.
मित्रों, सामवेद का स्पष्ट संदेश है, कि उषाकाल में जागना स्वास्थ्यवर्द्धक होता है। सामवेद के अनुसार “उस्त्रा देव वसूनां कर्तस्य दिव्यवसः।”अर्थात – उषा वह देवता है जिससे रक्षा के तरीके सीखे जा सकते हैं। “ते चित्यन्तः पर्वणापर्वणा वयम्।”अर्थात – हम प्रत्येक पर्व में तेरा चिंतन करें। प्रातः काल उठने से न केवल विकार दूर होते हैं वरन् जीवन में कर्म करने के प्रति उत्साह भी पैदा होता है।।
अगर हम आत्ममंथन करें तो पायेंगे कि हमारे अंदर शारीरिक और मानसिक विकारों का सबसे बड़ा कारण ही सूर्योदय के बाद नींद से उठना है। हमारी समस्या यह नहीं है, कि हमें कहीं सही इलाज नहीं मिलता। बल्कि सच बात यह है, कि अपने अंदर विकारों के आगमन का द्वार सुबह देर से जगकर स्वयं ही खोलते हैं। बेहतर है, कि हम सुबह सैर करें या योगसाधना करें। व्यायाम करना भी बहुत अच्छा होता है।।
अच्छा काम करने के लिये सत्य ही शस्त्र होता है। एक अंग्रेज जिसका नाम जार्ज बर्नाड शॉ है, के अनुसार बिना बेईमानी के कोई भी धनी नहीं हो सकता। हमारे देश में अंग्रेजी राज व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा संस्कारों ने जड़ तक अपनी स्थापना कर ली है। जिसमें छद्म रूप की प्रधानता हो गयी है। इसलिये अब यहां भी कहा जाने लगा है, कि सत्य, ईमानदारी, तथा कर्तव्यनिष्ठा से कोई काम नहीं बन सकता।।
दरअसल हमारे यहां समाज कल्याण अब राज्य का विषय वस्तु बन गया है। इसलिये धनिक लोगों ने इससे मुंह मोड़ लिया है। लोकतंत्र में राजपुरुष के लिये यह अनिवार्य है, कि वह लोगों में अपनी छवि बनाये रखें। इसलिये वह समाज में अपने आपको एक सेवक के रूप में प्रस्तुत कर कल्याण के ने नारे लगाते हैं। वह राज्य से प्रजा को सुख दिलाने का सपना दिखाते हैं। योजनायें बनती हैं, पैसा व्यय होता है पर नतीजा फिर भी वही ढाक के तीन पात रहता है।।
इसके अलावा गरीब, बेसहारा, बुजुर्ग, तथा बीमारों के लिये भारी व्यय होता है। जिसके लिये बजट में राशि जुटाने के लिये तमाम तरह के कर लगाये जाते हैं। इन करों से बचने के लिये धनिक राज्य व्यवस्था में अपने ही लोग स्थापित कर अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ात जाते हैं। उनका पूरा समय धन संग्रह और उसकी रक्षा करना हो गया है। इसलिये धर्म और दान उनके लिये महत्वहीन हो गया है।।
सामवेद में लिखा है, कि “ऋतावृधो ऋतस्पृशौ बहृन्तं क्रतुं ऋतेन आशाये।” अर्थात – सत्य प्रसारक तथा सत्य को स्पर्श करने वाला कोई भी महान कार्य सत्य से ही करते हैं। सत्य सुकर्म करने वाला शस्त्र है। “वार्च वर्थय।” अर्थात – सत्य वचनों का विस्तार करना चाहिए। तथा “वाचस्पतिर्मरवस्यत विश्वस्येशान ओजसः।” अर्थात – विद्वान तेज हो तो पूज्य होता है। कहने का अभिप्राय है, कि हमारे देश में सत्य की बजाय भ्रम और नारों के सहारे ही आर्थिक, राजकीय तथा सामाजिक व्यवस्था चल रही है।।
राज्य ही समाज का भला करेगा यह असत्य है। एक मनुष्य का भला दूसरे मनुष्य के प्रत्यक्ष प्रयास से ही होना संभव है। पर लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्य शब्द निराकार शब्द बन गया है। करते लोग हैं, पर कहा जाता है, कि राज्य कर रहा है। अच्छा करे तो लोग श्रेय लेते हैं और बुरा हो तो राज्य के खाते में डाल देते हैं। इस एक तरह से छद्म रूप से ही हम अपने कल्याण की अपेक्षा करते हैं, जो कि अप्रकट है।।
भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से समाज के परे होने के साथ ही विद्वानों का राजकीयकरण हो गया है। ऐसे में असत्य और कल्पित रचनाकारों को राजकीय सम्मान मिलता है और समाज की स्थिति यह है, कि सत्य बोलने वाले विद्वानों से पहले लोकप्रियता का प्रमाणपत्र मांगा जाता है। हम इस समय समाज की दुर्दशा देख रहे हैं। वह असत्य के मार्ग पर चलने के कारण ही है।।
परन्तु सत्य एक ऐसा शस्त्र है, जिससे सुकर्म किये जा सकते हैं। जिन लोगों को असत्य मार्ग सहज लगता है उनके लिये यह समझना मुश्किल है। पर तत्व ज्ञानी जानते हैं, कि क्षणिक सम्मान से कुछ नहीं होता। इसलिये वह सत्य के प्रचार में लगे रहते है। और कालांतर में इतिहास उनको अपने पृष्ठों में उनका नाम समेट ही लेता है।।
नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।
जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।
।। नमों नारायण ।।