संत ही स्वच्छ समाज का निर्माण करते हैं।।

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Sant Swachchh Samaj Ka Nirman Karata Hai
Sant Swachchh Samaj Ka Nirman Karata Hai

संत ही स्वच्छ समाज का निर्माण करते हैं।। Sant Swachchh Samaj Ka Nirman Karata Hai.

जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, संत होने का अर्थ मनुष्यत्व को खो देना नहीं है। अपितु स्वच्छ समाज का निर्माण करना ही है। और किसी ने कहा है, कि – परमारथ के कारने साधून धरा शरीर।। Bhagwat Pravakta – Swami Dhananjay Maharaj.

मित्रों, शिकार से थके हारे राजा परीक्षित ने समाधिस्थ संत शमीक ऋषि के गले में मृत पड़ा सर्प डाल दिया। भागवत जी की कथा तो यही कहती है, कि राजा चाहे जिस स्थिति में भी था, उससे अपराध हुआ। लेकिन संत को जब ज्ञात हुआ कि किसी राजा ने उनका अपमान किया है, तो भी संत को क्रोध नहीं आया। सबसे बड़ा संतत्व यही है, इसी लक्षण को संत कहते हैं। इसका अर्थ ये नहीं कि कोई किसी संत का अपमान करे और वो दण्ड पाए बिना सुरक्षित रह जाय। उसका दण्ड भले ही उस संत ने नहीं दिया, लेकिन उसे दण्ड तो मिला।।

तितिक्षवः कारुणिका: सुहृदः सर्वदेहिनाम्।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधू भूषणा:।।

अर्थ:- तितिक्षु होना अर्थात् सहनशील होना, कारुणिका: अर्थात् करुणावान होना। सुहृदः सर्वदेहिनाम् अर्थात् सभी देहधारियों का शुभ चिन्तक होना। अजातशत्रु अर्थात् किसी को भी शत्रु न समझने वाला, शान्त चित्त अर्थात् अन्दर की शान्ति का होना, ऐसा साधू साधुओं का रत्न होता है।।

मित्रों, तितिक्षु होना अर्थात् सहनशीलता, लेकिन इसका अर्थ कायरता नहीं है। इस बात को गंभीरतापूर्वक समझने की आवश्यकता है। करुणावान होने का अर्थ सर्वस्व लुटा देना नहीं होता। साथ ही इसका अर्थ निष्ठुर भी नहीं होना है। सभी प्राणियों का सुहृद होने का अर्थ घर में कुत्ता पालना नहीं है। हाँ कुत्ते को अकारण कष्ट नहीं देना चाहिए। क्योंकि उसके अन्दर भी हमारा परमात्मा विद्यमान है। परन्तु इमोशनली ब्लैकमेल होकर किसी दुष्टात्मा के द्वारा प्रताड़ित होना या कुत्ते बिल्लियों को घर में पालना नहीं है।।

अजातशत्रु अर्थात् किसी को भी शत्रु न समझने वाला, वैसे संत जो होता है, उसका कोई शत्रु तो होता ही नहीं है। अगर किसी के द्वारा किसी संत का अपमान भी हो जाय तो भी संत उसे शत्रु नहीं मानता। जैसे राजा परीक्षित ने अपमान किया संत शमीक ऋषि का। फिर भी उन्होंने उन्हें शत्रु नहीं माना। लेकिन अगर कोई जानबुझकर धर्म को अथवा धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से कुछ गलत करे, तो उसे क्षमा करना मैं समझता हूँ अधर्म को बढ़ावा देना ही है।।

हाँ अगर नियत बुरी नहीं है और किसी मज़बूरी वश अथवा किसी दुस्संगति, बुरे आचरण-बुरे स्वभाव, उद्दंडता वश या फिर अज्ञानता वश भी अगर किसी ने अपमान किया, तो वो क्षम्य अवश्य होता है। लेकिन अगर आप जानबूझकर कष्ट देने के उद्देश्य से अथवा धर्म (निजी भावनाओं) पर बुरी नियत से प्रहार करने के उद्देश्य से कर रहे हैं, तो ऐसा आचरण कदापि क्षम्य नहीं है।।

आजकल मैं अपने कुछ मिडिया वाले बंधुओं को सुनता हूँ, की फलां तो संत हैं, उन्हें राजनैतिक बातों से क्या लेना-देना? लेकिन मेरा मानना है, कि भाई संत होने का अर्थ मनुष्यत्व को खो देना नहीं है। अपितु स्वच्छ समाज का निर्माण करना ही है। और किसी ने कहा है, कि – परमारथ के कारने साधून धरा शरीर। आप अगर राजनीति में हैं अथवा मीडियाकर्मी हैं, तो क्या आपका धर्म इन बातों से भिन्न है? जी नहीं। आपका उद्देश्य कदापि भिन्न नहीं हो सकता। और अगर भिन्न है, तो आपका कार्य सराहनीय नहीं है, अपितु आप सजा के अधिकारी हैं। अगर आपका उद्देश्य समाज सेवा से भिन्न है, तो आप दण्ड के पात्र हैं।।

मित्रों, इस श्लोक के अनुसार संत लक्षण के अंतिम सूत्र हैं, शान्ताः अर्थात् अन्दर की शान्ति। संत को अन्दर से शान्त होना चाहिए। इस बात के प्रमाणार्थ आप गीता जी के इस श्लोक को ले सकते हैं –

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌।।(गी०अ०–३.श्लो०–२६.)

अर्थ:- परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए।।२६।।

भगवान कृष्ण के कहने का अभिप्राय मुझे यहाँ ये लगता है, कि जो साधारण गृहस्थों के कर्म हैं, उसे ठीक वैसे का वैसे एक सम्पूर्ण ज्ञानी को भी करना चाहिए। तो जो ज्ञानी है, उसे भी समाज में साधारण बनकर जीने का आदेश भगवान का है। मतलब तो आपलोग समझ ही गए होंगे, चलो फिर भी मैं बता देता हूँ। अन्दर की शान्ति अर्थात दिखावा बिलकुल नहीं होना चाहिए। अगर आपको परम शान्ति का अनुभव हो भी गया हो तो अपने को ऐसा प्रस्तुत करना है, जैसे हम अन्य लोगों की भांति ही साधारण हैं।।

ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में साधू है, और साधू ही नहीं वरन साधुओं के नाम पर साधू रत्न है। हमारे पूर्वज सभी ऋषियों में नारदादि कुछेक ऋषियों की बात छोड़ दें, तो बाकि सभी गृहस्थ हैं। आपको कोई संत माने अथवा न माने, आपके आचरण समाज विरोधी नहीं हैं, तो आप संत है। किसी के प्रति इर्ष्या-द्वेष अगर आप नहीं रखते तो आप संत हैं, संतोष अगर आपके अन्दर है, लेकिन फिर भी प्रयत्नशील हैं, तो आप संत है।।

आपको उपदेश करना नहीं आता लेकिन उपदेशों को पचाना आता है, उसपर अमल करते हैं, तो आप संत हैं। आजकल मैं देखता हूँ, लोग कहीं किसी की कोई अच्छी लाइन उठा लेते हैं, और उसे अपने आईडी से पोस्ट करके उपदेशक बन जाते हैं। अगर आप धर्म की परिभाषा जानना चाहते हैं, तो आपको अपने-आप को न दिखाना ही धर्म है। धर्म करना है, धर्म के लक्षणों को अपने अन्दर सम्पूर्ण रूप से अपने अन्दर उतारने का प्रयास करना है, लेकिन उसकी गाथा नहीं गानी है।।

अगर आपने अपने जीवन में इतना कर लिया, तो शमिक ऋषि की तरह कोई भी अगर आपका अपमान करेगा चाहे फिर वो राजकीय तन्त्र से ही क्यों न हो? उसका विनाश हो ही जायेगा बिना आपके श्राप दिए ही। आपने अगर अपने जीवन में मन्दिर जाने का कष्ट किया है, फिर चाहे जितनी बार किया हो, वो आपका कभी भी निष्फल नहीं जायेगा।।

भगवान का नाम आपने लिया है, चाहे जीवन में कभी भी, कहीं भी किसी भी स्थिति में, तो वो आपका कभी भी बेकार नहीं होगा इस बात की गारंटी मैं देता हूँ। और अगर आपका विश्वास कमजोर है, आपका विश्वास धर्म पर से डीग रहा है, तो मैं संकल्प करके अपना पूण्य आपको देने को तैयार हूँ, आपकी ख़ुशी के लिए। लेकिन आपके द्वारा किया गया धर्म का कोई भी कार्य व्यर्थ जाने वाला नहीं है।।

अवश्यमेव भुक्तब्यं कृतं कर्म शुभाशुभं।। जो भी शुभ अथवा अशुभ कर्म आपने किये हैं, उसे आपको भोगना ही है, आज या कल। और ये बात भगवान कृष्ण स्वयं भागवत जी में नन्दादी गोपों से कहते हैं। तो आप सम्पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण विश्वास और अपने धर्म पर आस्था बनाये रखें। पुरे मन एवं लग्न से धर्म करें। आपका कल्याण होने से स्वयं भगवान भी नहीं रोक सकता। क्योंकि वो भी इस मामले में बचनबद्ध हैं।।

हमें सन्त बनना है, लेकिन किसी के अत्याचार, अन्याय, अराजकता को सहन करके नहीं। अपितु एक सद्गृहस्थ बनकर, एक आदर्श मनुष्य बनकर एक स्वच्छ समाज का निर्माण करकर। किसी ने कहा है, कि हम सुधरेंगे युग सुधरेगा। तो हम सन्त बने लेकिन बिना किसी दिखावा के बिना चमत्कार करने वाले, बिना किसी साज-समाज के।।

ऐसा व्यक्ति जिस दिन हम बन जायेंगे, तो फिर योगिराज जनक की तरह हो जायेंगे। फिर उस दिन बड़े से बड़े जगद्गुरुओं को हमारे पास शिक्षा लेने आना पड़ेगा किसी चमत्कार की बात तो भूल ही जाइए। हमें शास्त्रानुसार तपस्या और साधना करनी चाहिए। दानादि श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करना चाहिए। परन्तु उसके बाद सूत्र जो बचता है – उसका नाम – इंतजार है।।

।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।

।। नमों नारायण ।।

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