श्राद्धपक्ष के श्राद्ध की विधि एवं उसका फल।।

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Shraddh Ki Vidhi
Shraddh Ki Vidhi

श्राद्धपक्ष के श्राद्ध की विधि एवं उसका फल तथा न करने से हानि।। Shraddh Ki Vidhi And Usaka Fal.

जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, श्राद्ध आदि के अवसर पर आज के इस लेख का पाठ करने से श्राद्ध पूर्ण होता है एवं ब्रह्मलोक को देनेवाला होता है। जो इस श्राद्धकल्प का पाठ करता हैं, उसे श्राद्ध करने का फल मिलता है। महर्षि कात्यायन ने मुनियों से जिस प्रकार श्राद्ध का वर्णन किया था, उसे बतलाता हूँ। गया आदि तीर्थों में, विशेषत: संक्राति आदि के अवसर पर श्राद्ध करना चाहिये। अपराह्रकाल में, अपरपक्ष (कृष्णपक्ष) में, चतुर्थी तिथि को अथवा उसके बाद की तिथियों में श्राद्धोपयोगी सामग्री एकत्रित कर उत्तम नक्षत्र में श्राद्ध करें।।

श्राद्ध के एक दिन पहले ही ब्राह्मणों को निमंत्रित करे। संन्यासी, ग्रहस्थ, साधू अथवा स्नातक तथा श्रोत्रिय ब्राह्मणों को, जो निंदा के पात्र न हों, अपने कर्मों में लगे रहते हों और शिष्ट एवं सदाचारी हों – निमंत्रित करना चाहिये। जिनके शरीर में सफेद दाग हों, जो कोढ़ आदि के रोगों से ग्रस्त हों, ऐसे ब्राह्मणों को छोड़ दें, अर्थात उन्हें श्राद्ध में सम्मिलित न करें।।

निमंत्रित ब्राह्मण जब स्नान और आचमन करके पवित्र हो जायँ तो उन्हें देवकर्म में पूर्वाभिमुख बिठावें। देव-श्राद्ध, पितृ-श्राद्ध में तीन-तीन ब्राह्मण रहें अथवा दोनों में एक-एक ही ब्राह्मण हों। इस प्रकार मातामह आदि के श्राद्ध में भी समझना चाहिये। शाक आदि से भी श्राद्ध-कर्म करावे।।१-५।।

श्राद्ध के दिन ब्रह्मचारी रहे, क्रोध तथा उतावली न करें। विनम्र, सत्यवादी और सावधान रहें। उस दिन अधिक मार्ग न चले, स्वाध्याय भी न करे, मौन रहे। सम्पूर्ण पंक्तिमूर्धन्य (पंक्ति में सर्वश्रेष्ठ अथवा पंक्तिवान) ब्राह्मणों से प्रत्येक कर्म के विषय में पूछे।।

आसन पर कुश बिछावें, पितृकर्म में कुशों को दुहरा मोड़ देना चाहिये। पहले देव-कर्म फिर पितृ-कर्म करें। (श्राद्ध आरम्भ करने से पूर्व रक्षा-दीप जला लेना चाहिये।।) देव-धर्म में स्थित ब्राह्मणों से पूछे –‘मैं विश्वेदेवों का आवाहन करूँगा।’ ब्राह्मण आज्ञा दें –‘आवाहन करो’, तब इस मन्त्र के द्वारा विश्वेदेवों का आवाहन करके आसन पर जौ छोड़े।।

‘विश्वेदेवास आगत श्रुणुताम इम हवम, एदं बहिर्निषीदत’ (यजु.७/३४)

– तथा

‘विश्वेदेवा: श्रुणुतेम हवं में ये अन्तरिक्षे य उपद्यविष्ठ।
ये अग्निजिव्हा उत वा यजत्रा आसद्यास्मिन बहिर्षि माद्यध्वम।।’ (यजु. ३३/५३)

इस मन्त्र का जप करें, तत्पस्चात पितृकर्म में नियुक्त ब्राह्मणों से पूछे – ‘मैं पितरों का आवाहन करूँगा।’ ब्राहमण कहें – ‘आवाहन करो।’ तब इस मन्त्र का पाठ करते हुए आवाहन करें।।

‘ॐ उशन्तस्तवा निधीध्म्युशन्त: समिधीमहि। उशन्नुशत आवह पितृन हविये अतवे।। (यजु. १९/७०)

फिर ‘अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषद:।।’ (यजु. २/२९) – इस मन्त्र से तिल बिखेरकर

ॐ आयन्तु न: पितर: सोम्यासोग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै:।
अस्मिन यज्ञे स्वधया मदन्तोधिब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान।। (यजु. १९/५८)

इत्यादि मन्त्र का जप करे। इसके बाद पवित्रक सहित अर्घ्यपात्र में –

ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शंय्योरभिस्रवन्तु न:।। (अथर्व. १/६/१) इस मन्त्र से जल डाले)।।६-१०।।

तदनंतर ॐ यवोसि यवयास्मदद्वेपो यवयाराती:। (यजु. ५/२६) इस मन्त्र से जौ देकर पितरों के निमित्त सर्वत्र तिल का उपयोग करे। (पितरों के अर्घ्यपात्र में भी ‘ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शंय्योरभिस्रवन्तु न:।। (अथर्व. १/६/१)’ इस मन्त्र से जल डालकर)

‘तिलोंसि सोमदेवत्यों गोसवे देवनिर्मित:। प्रत्नवभ्दी: प्रत्त: स्वधया पित्रुल्लोकान पृणीहि न: स्वधा।।’ यह मन्त्र पढ़कर तिल डाले । फिर ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पल्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्चिंनौ व्यात्तम। इष्णात्रिषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण।। (यजु,३१/२२) इस मन्त्र से अर्घ्यपात्र में फुल छोड़े)।।

अर्घ्यपात्र सोना, चाँदी, गुलर अथवा पत्ते का होना चाहिये। उसी में देवताओं के लिये सव्यभाव से और पितरों के लिये अपसव्यभाव से उक्त वस्तुएँ रखनी चाहिये। एक –एक को एक-एक अर्घ्यपात्र पृथक-पृथक देना उचित हैं। पितरों के हाथों में पहले पवित्री रखकर ही उन्हें अर्घ्य देना चाहिये।।११-१३।।

तत्पस्चात देवताओं के अर्घ्यपात्र को बायें हाथ में लेकर उसमें रखी हुई पवित्री को दाहिने हाथ से निकाल कर देव-भोजन-पात्र पर पूर्वाग्र करके रख दे। उसके ऊपर दूसरा जल देकर अर्घ्यपात्र को ढककर निम्नांकित मन्त्र पढ़े – ॐ या दिव्या आप: पयसा सम्बभूवुर्या अन्तरिक्षा उत पार्थिविर्या:। हिरण्यवर्णा यज्ञियास्ता न आप: शिवा: शं स्योना: सुहवा भवन्तु।।’

फिर जौ, कुशा और जल हाथ में लेकर संकल्प पढ़े। ‘ॐ अध्यामुकगोत्रानां पितृपितामह प्रपितामहानाम अमुकामुकशर्मणाम अमुकश्राद्धस्म्बन्धिनों विश्वेदेवा: एष वो हस्तार्घ्य: स्वाहा।’ यों कहकर देवताओं को अर्घ्य देकर पात्र को दक्षिण भाग में सीधे रख दे।।

इसी प्रकार पिता आदिके लिये भी अर्घ्य दे। उसका संकल्प इस प्रकार है – ‘ओमद्य अमुकगोत्र पित: अमुकशर्मन अमुकश्राद्धे एष हस्तार्घ्य: ते स्वधा।’ इसी तरह पितामह आदि को भी दे। फिर सब अर्घ्य का अवशेष पहले पात्र मे डाल दे अर्थात प्रपितामह के अर्घ्य में जो जल आदि हो, उसे पितामह के पात्र मे डाल दे।।

इसके बाद वह सब पिता के अर्घ्यपात्र में रख दे। पिता के अर्घ्यपात्र को पितामह के अर्घ्यपात्र के ऊपर रखे। फिर उन दोनों को प्रपितामह के अर्घ्यपात्र के ऊपर रख दे। फिर उन दोनों को प्रपितामह के अर्घ्यपात्र के ऊपर रख दें। तत्पस्च्यात तीनों को पिता के आसन के वामभाग में ‘पितृभ्य: स्थानमसि।’ ऐसा कहकर उलट दें। तदनंतर वहाँ देवताओं और पितरों के लिये गंध, पुष्प, धुप, दीप तथा वस्त्र आदि का दान किया जाता हैं।।१४-१६।।

अब काम्य श्राद्धकल्प का वर्णन करते हैं:-

प्रतिपदा को श्राद्ध करने से बहुत धन प्राप्त होता हैं। द्वितीया व तृतीया को श्राद्ध करने से श्रेष्ठ स्त्री मिलती हैं। चतुर्थी को किया हुआ श्राद्ध धर्म और काम को देनेवाला है। पुत्र की इच्छावाला पुरुष पंचमी को श्राद्ध करे। षष्ठी के श्राद्ध से मनुष्य श्रेष्ठ होता है। सप्तमी के श्राद्ध से खेती में लाभ होता और अष्टमी के श्राद्ध से अर्थ की प्राप्ति होती है। नवमी को श्राद्ध अनुष्ठान करने से एक खुरवाले घोड़े आदि पशुओं की प्राप्ति होती है।।

दशमी के श्राद्ध से गो-समुदाय की उपलब्धि होती है। एकादशी के श्राद्ध से परिवार और द्वादशी के श्राद्ध से धन-धान्य बढ़ता है। त्रयोदशी को श्राद्ध करनेसे अपनी जाति में श्रेष्ठता प्राप्त होती है। चतुर्दशी को उसी का श्राद्ध किया जाता है, जिसका शस्त्र द्वारा वध हुआ है। अमावस्या को सम्पूर्ण मृत व्यक्तियों के लिये श्राद्ध करने का विधान है।।१७-५१।।

यदि पितामह जीवित हो तो पुत्र आदि अपने पिता का तथा पितामह के पिता और उनके भी पिता का श्राद्ध करे। यदि प्रपितामह जीवित हो तो पिता, पितामह एवं वृद्धप्रपितामह का श्राद्ध करे । इसी प्रकार माता आदि तथा मातामह आदि के श्राद्ध में भी करना चाहिये।।५२-५६।।

उत्तम तीर्थ में, युगादि और मन्वादि तिथि में किया श्राद्ध अक्षय होता है। आश्विनी शुक्ल नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भाद्रपद की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष शुक्ल एकादशी, आषाढ़ की दशमी, माघमास की सप्तमी, श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन तथा जेष्ठ की पूर्णिमा – ये तिथियाँ स्वायम्भुव आदि मनु से सम्बन्ध रखनेवाली हैं।।

इनके आदि भाग में किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता है। गया, प्रयाग, गंगा, कुरुक्षेत्र, नर्मदा, श्रीपर्वत, प्रभास, शालग्रामतीर्थ (गण्डकी), काशी, गोदावरी तथा श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्र आदि तीर्थों में श्राद्ध उत्तम होता हैं।।५७-६२।।

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।

।। नमों नारायण ।।

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