वरुथिनी एकादशी व्रत कथा एवं विधि।।

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Varuthini Ekadashi Vrat
Varuthini Ekadashi Vrat

वरुथिनी एकादशी व्रत कथा एवं पूजा विधि।। Varuthini Ekadashi Vrat Katha And Vidhi.

जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, वैदिक सनातन धर्म का एक बहुत ही प्रभावी व्रत एकादशी व्रत है और हमारे धर्म में यह बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। वैसे तो प्रत्येक मास में दो एकादशियां आती हैं। यह दोनों ही एकादशियां खास मानी जाती हैं। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी भी बहुत ही खास होती है। इस एकादशी का नाम वरुथिनी एकादशी है। इसे वरूथिनी ग्यारस भी कहते हैं।।

बहुत ही पुण्य और सौभाग्य प्रदान करने वाली इस एकादशी के व्रत से समस्त पाप एवं ताप नष्ट हो जाते हैं। मान्यता यह है, कि इस लोक के साथ-साथ व्रती का परलोक भी सुधर जाता है। इस व्रत के पुण्य का हिसाब-किताब रखने की क्षमता तो जगत के समस्त प्राणियों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाले चित्रगुप्त तक में नहीं है। कहने का तात्पर्य है, कि वरूथिनी एकादशी का व्रत अतुलनीय पुण्य फल प्रदान करने वाला है।।

वरुथिनी एकादशी व्रत कथा।। Varuthini Ekadashi Vrat Katha.

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा- “हे प्रभु! वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? तथा उसका क्या विधान है? और उससे किस प्रकार के फल की प्राप्ति होती है? सो कृपापूर्वक विस्तार से बताएँ।।”

अर्जुन की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- “हे अर्जुन! वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम बरूथिनी एकादशी है। यह हर प्रकार के सुख एवं सौभाग्य को प्रदान करने वाली है। इसका उपवास करने से प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि इस व्रत का उपवास कोई दुखी सधवा स्त्री करती है, तो उसे सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इस बरूथिनी एकादशी के प्रभाव से ही राजा मान्धाता को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी।।

बहुत समय पहले की बात है, नर्मदा नदी के किनारे एक राज्य था जिसका राजा मांधाता था। राजा मान्धाता बहुत ही पुण्यात्मा थे, अपनी दानशीलता के लिये वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। वे तपस्वी होने के साथ ही भगवान विष्णु के अनन्य उपासक भी थे। एक बार राजा जंगल में तपस्या के लिये चले गये और एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाकर तपस्या आरंभ कर दी। वे अभी तपस्या में ही लीन थे कि एक जंगली भालू ने उन पर हमला कर दिया।।

वह भालू उनके पैर को चबाने लगा। लेकिन राजा मान्धाता तपस्या में एकाग्रचित ही लीन रहे। भालू उन्हें घसीट कर ले जाने लगा तो ऐसे में राजा को घबराहट होने लगी। लेकिन उन्होंने तपस्वी धर्म का पालन करते हुए क्रोध नहीं किया। बल्कि भगवान विष्णु से ही इस संकट से उबारने की गुहार लगाई। भगवान अपने भक्तों पर संकट कैसे देख सकते थे। भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और भालू को अपने सुदर्शन चक्र से मार गिराया।।

परन्तु तब तक भालू ने राजा के पैर को लगभग पूरा चबा लिया था। राजा को बहुत पीड़ा हो रही थी। श्री भगवान ने राजा से कहा हे राजन! विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। तुम वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की वरुथिनी एकादशी तिथि जो मेरे वराह रूप का प्रतिक है। तुम इस दिन मेरे वराह रूप की पूजा करना एवं व्रत रखना। मेरी कृपा से तुम पुन: संपूर्ण अंगों वाले हष्ट-पुष्ट शरीर की प्राप्ति हो जायेगी। भालू ने जो भी तुम्हारे साथ किया यह तुम्हारे पूर्वजन्म के पाप कर्मों का फल है।।

Varuthini Ekadashi Vrat

इस एकादशी के व्रत से तुम्हें सभी पापों से भी मुक्ति मिल जायेगी। भगवान की आज्ञा मानकर मांधाता ने वैसा ही किया और वरूथिनी एकादशी का व्रत पारण करते ही उसका भालू द्वारा खाया हुआ पैर पूरी तरह ठीक हो गया। भगवान वराह की कृपा से जैसे राजा को नवजीवन मिल गया हो। वह फिर से हष्ट पुष्ट होकर अधिक श्रद्धाभाव से भगवान की साधना में लीन रहने लगा। ठीक इसी तरह कोई भी व्यक्ति वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर इस कथा का पाठ करता है उसके सारे कष्ट दूर होने के साथ सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।।

इसी प्रकार राजा धुन्धुमार आदि भी स्वर्ग को गए थे। बरूथिनी एकादशी के उपवास का फल दस सहस्र वर्ष तपस्या करने के फल के समान है। कुरुक्षेत्र में सूर्य ग्रहण के समय जो फल एक बार स्वर्ण दान करने से प्राप्त होता है, वही फल बरूथिनी एकादशी का उपवास करने से प्राप्त होता है। इस व्रत से प्राणी इहलोक और परलोक दोनों में सुख पाते हैं एवं अन्त में स्वर्ग के भागी होते हैं।।

हे पार्थ! इस एकादशी का उपवास करने से मनुष्य को इहलोक में सुख और परलोक में मुक्ति प्राप्त होती है। शास्त्रों में कहा गया है, कि घोड़े के दान से हाथी का दान श्रेष्ठ है और हाथी के दान से भूमि का दान श्रेष्ठ होता है, इनसे भी श्रेष्ठ तिलों का दान होता है। तिल के दान से श्रेष्ठ स्वर्ण का दान और स्वर्ण के दान से श्रेष्ठ अन्न-दान होता है। संसार में अन्न-दान से श्रेष्ठ कोई भी दान नहीं है।।

अन्न-दान से पितृ, देवता, मनुष्य आदि सब तृप्त हो जाते हैं। कन्यादान को शास्त्रों में अन्न-दान के समान माना गया है। बरूथिनी एकादशी के व्रत से अन्नदान तथा कन्यादान दोनों श्रेष्ठ दानों का फल मिल जाता है। जो मनुष्य लालचवश कन्या का धन ले लेते हैं या आलस्य और कामचोरी के कारण कन्या के धन का भक्षण करते हैं, वे प्रलय के अन्त तक नरक भोगते रहते हैं या उनको अगले जन्म में बिलाव योनि में जाना पड़ता है।।

कथा-सार:- सौभाग्य का आधार संयम है। हर प्रकार संयम रखने से मनुष्य के सुख और सौभाग्य में वृद्धि होती है। यदि प्राणी में संयम नहीं है तो उसके द्वारा किये गए तप, त्याग एवं भक्ति-पूजा आदि सब व्यर्थ हो जाते हैं। सभी एकादशी के महत्व को बताने वाली एक खास कथा हमारे पौराणिक ग्रंथों में है।।

एकादशी पर क्या करें क्या न करें?।। Varuthini Ekadashi Par Kya Na Karen.

जो प्राणी प्रेम से व्रत, उपवास तथा यज्ञ सहित कन्यादान करते हैं। उनके पुण्य को चित्रगुप्त भी लिखने में असमर्थ हो जाते हैं। जो प्राणी इस बरूथिनी एकादशी का उपवास करते हैं, उन्हें कन्यादान का फल प्राप्त होता है। बरूथिनी एकादशी का व्रत करने वाले को दशमी के दिन से इन वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिये। कांसे के बर्तन में भोजन करना, मांस, मसूर की दाल, चना, कोदों, शाक, मधु (शहद), दूसरे का अन्न, दूसरी बार भोजन करना आदि।।

व्रती को पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये। रात को सोना नहीं चाहिये। अपितु सारा समय शास्त्र चिन्तन और भजन-कीर्तन आदि में लगाना चाहिये। दूसरों की निन्दा तथा नीच पापी लोगों की संगत भी नहीं करनी चाहिये। क्रोध करना या झूठ बोलना भी वर्जित है। तेल तथा अन्न भक्षण की भी मनाही है। हे राजन! जो मनुष्य इस एकादशी का व्रत विधानपूर्वक करते हैं, उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है, अतः मनुष्य को निकृष्ट कर्मों से डरना चाहिये। इस व्रत के माहात्म्य को पढ़ने से एक सहस्र गौदान का पुण्य प्राप्त होता है। इसका फल गंगा स्नान करने के फल से भी अधिक है।।

वरुथिनी एकादशी व्रत विधि।। Varuthini Ekadashi Vrat Vidhi.

वरुथिनी एकादशी या कहें वरूथिनी ग्यारस को भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिये। इस दिन भगवान श्री हरि यानि भगवान विष्णु के वराह अवतार की प्रतिमा की पूजा भी की जाती है। एकादशी का व्रत रखने के लिये दशमी के दिन से ही व्रती को नियमों का पालन करना चाहिये। दशमी के दिन केवल एक बार ही अन्न ग्रहण करना चाहिये। वह भी सात्विक भोजन के रूप में। कांस, उड़द, मसूर, चना, कोदो, शाक, मधु, किसी दूसरे का अन्न तथा दिन में दो बार भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिये।।

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन भी इस दिन अवश्य करना चाहिये। पान खाने, दातून करने, परनिंदा, द्वेश, झूठ, क्रोध आदि का भी पूर्णत: त्याग करना चाहिये। एकादशी के दिन प्रात:काल स्नानादि के पश्चात व्रत का संकल्प लेकर भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करनी चाहिये। साथ ही व्रत कथा भी सुननी या फिर पढ़नी चाहिये। रात्रि में भगवान के नाम का जागरण करना चाहिये। द्वादशी को विद्वान ब्राह्मणों को भोजनादि करवा कर दान-दक्षिणा देकर व्रत का पारण करना चाहिये।।

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नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।

।। नमों नारायण ।।

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भागवत प्रवक्ता- स्वामी धनञ्जय जी महाराज "श्रीवैष्णव" परम्परा को परम्परागत और निःस्वार्थ भाव से निरन्तर विस्तारित करने में लगे हैं। श्रीवेंकटेश स्वामी मन्दिर, दादरा एवं नगर हवेली (यूनियन टेरेटरी) सिलवासा में स्थायी रूप से रहते हैं। वैष्णव धर्म के विस्तारार्थ "स्वामी धनञ्जय प्रपन्न रामानुज वैष्णव दास" के श्रीमुख से श्रीमद्भागवत जी की कथा का श्रवण करने हेतु संपर्क कर सकते हैं।।

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