Home My Articles बड़ी सफलता हेतु भगवान का सहारा चाहिये।।

बड़ी सफलता हेतु भगवान का सहारा चाहिये।।

0
Safalata Hetu Bhagwan ka Sahara
Safalata Hetu Bhagwan ka Sahara

बड़ी सफलता हेतु भगवान का सहारा चाहिये।। Safalata Hetu Bhagwan ka Sahara.

जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, केवल धर्म को पाखंड के नाम पर त्याग कर देना उचित नहीं है। धर्म के प्रत्यंग में कुछ-न-कुछ गंभीर रहस्य छिपा होता है। आप अपने सभी कर्मों में भगवान को सहारा बनाकर कर्म करें तो सफलता आपके सभी लक्ष्य में मिलेगी इसमें कोई संसय नहीं है।।

यज्ञ दान तपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम।।
एतन्यापि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।।

अर्थ:- मनुष्य के लिए यज्ञ, दान और तप आदि धर्म सम्मत कर्तव्य कर्मो का त्याग किया जाना योग्य या उचित नहीं है। क्योंकि यही कर्म बुद्धिमान और परम धार्मिक मनुष्यों को पवित्र उन्नति और कीर्ति प्रदान करने वाले होते हैं। इसलिए सभी मनुष्यों को यज्ञ, दान और तप को तथा अन्य आवश्यक कर्तव्य कर्मो के निर्वाह अवश्य करने चाहिये। हाँ इनसे प्राप्त होने वाले फल से आशक्ति के त्याग को अवश्य करना चाहिये।।

साथ ही निषिद्ध और काम्य कर्मो का स्वरूप से त्याग करना चाहिए। शास्त्र सम्मत नियत कर्मो का स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। परंतु लोभ, मोह के कारण शास्त्र सम्मत नियत कर्मो का त्याग तामस त्याग होता है। जो कुछ भी कर्म है सब दुःख रूप ही है। ऐसा समझकर यदि कोइ मनुष्य शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्यकर्मो का त्याग करता है तो ऐसा त्याग राजस त्याग होता है। किन्तु शास्त्र सम्मत नियत और विहित कर्तव्य कर्मो को पूरे अंतर्मन से निष्काम और परमार्थ भाव के साथ आशक्ति और फल के त्याग को सात्त्विक कहते हैं।।

यत्करोषि यादश्नाशी यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपश्यसी कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।

महाभारत के युद्ध के मैदान की बात है। दुष्ट जयद्रथ के वजह से वीर अभिमन्यु को दुष्ट कौरवों ने घेर कर मार डाला था। अर्जुन भी कुपित थे और क्रोधावस्था में ही प्रतिज्ञा ले ली की कल का सूर्यास्त जयद्रथ नहीं देख पायेगा। अगर देख लिया तो मैं अग्नि समाधी ले लूँगा। अगले दिन युद्ध में बहुत हलचल हुआ लेकिन जयद्रथ की रक्षा में कौरवों ने अपने प्राण लगा दिये। ऐसे में अर्जुन जयद्रथ को नहीं मार पाये।।

फिर भगवान ने अपनी लीला रची और माया से सूर्य को छिपा दिया। इतने में सभी कौरवों सहित जयद्रथ भी सामने आकर ललकारने लगा। जयद्रथ सामने खड़ा हो गया और अर्जुन को खरी-खोटी सुनाने लगा। गाण्डीवधारी अर्जुन! दिव्य अस्त्रों के ज्ञाता अर्जुन! प्रतिज्ञा पूरी करो! जल्दी अग्नि समाधी लो। इस ग्वाले के माथे उछल रहे थे अब मरो? परन्तु भगवान की लीला को कौन समझ सकता है? लीलाधारी जो हैं।।

भगवान ने मौके को देखा और अर्जुन को इशारा करते हुए बोले अर्जुन निराश क्यों होते हो? अपने सामने देखो बिल्कुल ठीक निशाने पर तुम्हारा लक्ष्य जयद्रथ है। और सूर्य भी आकाश में खिलखिला रहा है। एक पल को तो सभी अचम्भित से रह गये। और सभी आकाश की ओर देखने लगे। भगवान ने कहा – अर्जुन सावधान! इसका सर नीचे नहीं गिरने पाये। क्योंकि इस जयद्रथ के पिता बृहद्रथ ने उसे वरदान दिया है, कि जो भी इसका सर धरती पर गिराएगा। उसका सर भी फट जायेगा और उसकी भी मृत्यु हो जाएगी।।

दिव्य अस्त्रों का ज्ञाता अर्जुन! उसने अपने बाण से आकाश में रोक कर रखा उसके सर को। दूर समाधी में बैठे उसके पिता की गोद में ही डाल दिया। जयद्रथ का सर जाकर उसके पिता बृहद्रथ के गोद में ही गिरा। परन्तु जबतक वो समझ पाते की ये है क्या? उठाकर खड़े हो गये! और जयद्रथ का सिर धरती पर गिर पड़ा। जैसे ही उसका सिर धरती पर गिरा उसके पिता के सिर में भी तत्काल एक भयंकर विस्फोट हुआ। उसके पिता की भी मृत्यु हो गयी।।

जयद्रथ भी मर गया और उसके पिता बृहद्रथ का भी अंत हो गया। क्योंकि अपने स्वयं के वरदान के कारण ही जमीन पर सिर गिरा उनके सिर के भी सहस्रों टुकड़े हो गये। ये इतना बड़ा और ऐसा कवच था कि क्या मनुष्य तोड़ सकता था? अगर युद्ध के मैदान में क्रोध में अर्जुन सीधा दौड़ जयद्रथ को मार भी देता तो क्या परिणाम निकलता? ऐसी स्थिति में अर्जुन को खुद तो मरना ही था और जयद्रथ के सहारे कौरवों की जीत भी निश्चित हो जाती।।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया।।

भगवान कहते हैं, कि हे अर्जुन! ईश्वर सब प्राणियों के ह्रदय में विराजमान है। शरीररुप यंत्र पर आरुढ हुए सब प्राणियों को, अपनी माया के माध्यम से (हरेक के कर्मों के मुताबिक) वह घूमाता रहता है।।

मित्रों, भगवान भी वही करते करवाते हैं, जिससे मनुष्य सही लक्ष्य पर खरा उतरे। इसलिए हमें सदैव प्रेरक के रूप में भगवान को सम्मुख खड़े करके ही कोई भी कार्य करना चाहिये। हमारा विश्वास और हमारी श्रद्धा ही भगवान में स्थिर नहीं हो पाती। जिससे भटकाव जीवन भर बना ही रहता है।।

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।

।। नमों नारायण ।।

Previous articleअथ मधुराष्टकम् – अर्थ सहितम्।।
Next articleदेशद्रोही ताकतों का शिकार बना ब्राह्मण।।
भागवत प्रवक्ता- स्वामी धनञ्जय जी महाराज "श्रीवैष्णव" परम्परा को परम्परागत और निःस्वार्थ भाव से निरन्तर विस्तारित करने में लगे हैं। श्रीवेंकटेश स्वामी मन्दिर, दादरा एवं नगर हवेली (यूनियन टेरेटरी) सिलवासा में स्थायी रूप से रहते हैं। वैष्णव धर्म के विस्तारार्थ "स्वामी धनञ्जय प्रपन्न रामानुज वैष्णव दास" के श्रीमुख से श्रीमद्भागवत जी की कथा का श्रवण करने हेतु संपर्क कर सकते हैं।।

NO COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

error: Content is protected !!
Exit mobile version