धर्म की परिभाषा एवं व्यक्ति का आचरण।। Dharm And Acharan.
जय श्रीमन्नारायण, Bhagwat Katha.
मित्रों, बात उस समय की है जब कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरवों और पाण्डवों की सेना युद्ध के उद्देश्य से आमने-सामने खड़ी थी। अर्जुन युद्ध के लिये अपने विरोधियों के पक्ष में अपने स्वजनों को देखा। देखते ही अर्जुन के हाथ-पाँव फुल गये और गाण्डीव धनुष रखकर किसी गम्भीर सोंच में बैठ गया। तब भगवान कृष्ण ने कहा:- अर्जुन किस सोच में बैठ गये? अर्जुन ने कहा, आर्यश्रेष्ठ मेरे सामने मेरे अपने ही खड़े है, मैं उन पर कैसे जहर बुझे बाणों को चला सकता हूँ? यह मुझसे संभंव नही है।।
भगवान कृष्ण ने कहा:- अर्जुन जिन्हें तुम अपने समझ रहे हो, वे तुम्हारे नहीं है। यदि वे तुम्हारे होते तो इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते और तुम यहां खड़े नही होते। अत: हे अर्जुन यह संसार एक माया है। यहां सब अपने कर्मों के अनुसार ही जन्म लेते हैं। और कर्मो के अनुसार ही सुख-दुख को अनुभव करते है। और ये जो सब सामने खडे है, अधर्म की नीति को धारण कर अपने स्वयं के लिए लड़ रहे है। परन्तु तुम धर्म की नीति को धारण कर मानवता के लिए लड़ रहे हो।।
हे अर्जुन! तुम्हारा लड़ना श्रेष्ठता के लिए है, इनका लड़ना निकृष्टता के लिए है। अर्जुन जब लड़ाई श्रेष्ठता के लिए होती है, तो उसमें सबसे पहले अपने प्रिय ही आड़े आते हैं। पहला युद्ध उन्हीं से होता है, जब व्यक्ति अपनों से लड़कर सकुशल निकल जाता है। तब उसे धर्म की नीति पर चलने के लिए कोई नहीं रोक सकता। उस समय महाभारत का युद्ध बाहर मैदान में था। परन्तु आज महाभारत हर मानव के अन्दर चल रहा है।।
मित्रों, हम हर समय युद्ध लड़ रहे हैं। इसे वैचारिक युद्ध भी कहा जा सकता है। इस युद्ध का परिणाम भी आता है। हम हर बार थक हार कर बैठ जाते है। जबकि हमें अर्जुन की तरह मार्ग दिखाने वाले भगवान भी है। अन्तर इतना है, कि हम उनकी आवाज सुनते ही नहीं। हम यह सोचकर बैठ गए हैं, कि यह मार्ग जो श्रेष्ठता का बताया जाता है, बहुत कठिन है। इसीलिए निकृष्टता का मार्ग हमें सहज और सुगम लगता है।।
हम अविश्वास के भावों को जल्दी ग्रहण करते है, विश्वास के भावों को नहीं। उसका कारण ये है, कि हमारें चारों ओर का वातावरण ही अविश्वास से भरा मिलता है। जहां नीति पूर्ण कार्य नहीं अपितु अनीति पूर्ण कार्य ज्यादा हो रहे है। साथ ही हम भी उन कार्यो को करने में संलग्न है। हालांकि हमारे अन्दर बैठा भगवान हमें हर समय सचेत करता रहता है, कि नीति पूर्ण कार्य एवं धर्म आधारित कर्त्तव्य ही करें। क्योंकि यही श्रेष्ठता की ओर ले जाते है।।
लेकिन हम इसे अनदेखा करते रहते हैं। लेकिन ये हमें सदैव याद रखना चाहिए, कि धर्म की जड़ हमेशा हरी होती है। यह जानकर भी हम इस ओर कदम नहीं उठाते। यदि किसी के कहने सुनने से उठकर चल भी पड़ते है, तो ज्यादा नहीं चल पाते। बल्कि बहुत जल्द ही थककर बैठ जाते है। और हम अपने मनमुखी वृत्तियों की ओर पुनः उसी वातावरण में लौटने लगते है।। Dharm And Acharan
नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः।।5।।
भागवत में सूतजी महर्षि शौनक से कहते हैं, कि ब्राह्मण श्रेष्ठ राजा परीक्षित ने राजवेषधारी कलियुग से कहा:- रे तू नट की भाँति वेश तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शुद्र (उद्दण्ड) जान पड़ता है।।5।।
लगभग हम भी कुछ ऐसे ही हैं। हमारी बातें (हमारी बातें – आत्मा-परमात्मा, ज्ञान-मुक्ति जैसी) महान संतों जैसा है। जबकि हमारी वेशभूषा में हमारी संस्कृति का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध ही नहीं दीखता। वह तो कलियुग के वेष-भूषा कि तरह पूर्णतः पाखंडपूर्ण होता है। इससे स्पष्ट होता है, कि कर्म (आचरण) में वो जुबानी धर्म ना के बराबर है अथवा है ही नहीं।।
हमें अपने आप को बदलना होगा। अन्यथा भ्रष्टाचार उन्मूलन का स्वप्न स्वप्न ही रह जायेगा। इस तरह कि बातें धर्मं का प्रचार और समाज में बदलाव लाने के बजाय, धर्मं का ह्रास ही करेंगी।।
।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।
नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।
जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।
।। नमों नारायण ।।