यह है भक्ति की पराकाष्ठा।। Sampurna Samarpan.
जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, भक्ति का सीधा अर्थ समर्पण से है। अर्थात आप अगर किसी के भी भक्त हैं तो फिर वह जो कहे अथवा जिस प्रकार उसको खुशी मिले वही कार्य करना भक्ति का दूसरा नाम है। भक्ति का मतलब भी यह होता है, कि आप किसी एक देवता को जिसको भी अपना इष्ट मान लेते हैं अथवा जिसको भी अपना आदर्श मान लेते हैं वह जो कहे वह जो चाहे वही करना भक्ति कहीं गयी है।।
यही सूत्र भगवान की भक्ति के लिए भी लागू होता है। यही बात इंसान के लिए भी लागू होता है। अगर आपने अपने पिता को अपना आदर्श मान लिया तो फिर पिता के सम्मुख संपूर्ण समर्पण ही पिता की भक्ति काही जाएगी। अगर आपने अपनी माता को अपना आदर्श मान लिया तो माता जो कहे जैसे भी उसको खुशी मिले वही कार्य करना भक्ति कहा जाता है।
अगर आपने जीवन में किसी नेता को आपने अपना आदर्श मान लिया तो फिर वह जो कहे उन बातों को मान लेना ही भक्ति है। इसी की भी भक्ति करो उसमें समर्पण की भावना का होना अत्यावश्यक होता है। इसलिए भक्ति अगर आप संपूर्ण भावना से एवं मन से किसी की भी करते हैं वहां पर आपको फल भगवान अवश्य देंगे।।
कदाचित यदि कोई इंसान अगर आपकी भावना को न भी समझ पाये तो भी उसका प्रतिफल भगवान आपको अवश्य देता है। यह विश्वास भी साथ में रखें। भागवत में एक बहुत ही सुंदर प्रसंग आता है। भगवान की बाल लीला के अंतर्गत। भगवान नन्हे से होते हैं और मैया यशोदा उनको उखल में बाँध देती है। ऊखल से बंधे हुए नन्हे से गोपाल जब उसे खींचते हुए आगे बढ़ते हैं।।
खींचते हुये दो पेड़ों के बीच में से निकलते हैं। यह दोनों पेड़ के रूप मे यक्षराज कुबेर के दो पुत्र जो नारद जी के श्राप के वजह से पेड़ बने थे वही थे। भगवान के एक हल्के से झटके मात्र से वृक्ष बने कुबेर के दो पुत्र नल और कुबर प्रकट हो जाते हैं। उन दोनों ने भगवान की बड़ी सुंदर स्तुति की है। उन्होंने भक्ति की परिभाषा इस लोक में श्लोक ने बताया है।।
वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां,
हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्न:।।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे,
दृष्टि: सतां दर्शनेअस्तु भवत्तनुनाम्।।
(श्रीमद्भागवत 10वां स्कन्ध 10वां अध्याय श्लोक 38)
अर्थ:- हे प्रभो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का वर्णन करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगी रहें। हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरण-कमलों की स्मृति में रम जाएँ। यह सम्पूर्ण जगत् आपका निवास-स्थान है। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। सन्त आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं। हमारी ऑंखें उनके दर्शन करती रहें।।
यह श्लोक भागवत के एक अन्य प्रसंग राजा अंबरीश की कथा में भी आता है। राजा अंबरीश भगवान के बहुत बड़े भक्त थे। परंतु राजा अंबरीश ने भगवान से कभी भी कुछ भी नहीं मांगा। वो बस इसी श्लोक के माध्यम से भगवान के श्री चरणों में भक्ति की कामना ही करते हैं। भगवान ने भी उनको अपनी अनन्य शरणागति सहज ही प्रदान कर दी थी।।
हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं।।
हे गोविंद ! हे गोपाल ! हे गिरधर ! हे मेरे प्रभु।।
मैं आपका हूँ ! और आप सिर्फ मेरे हैं।।
।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।
नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।
जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।
।। नमों नारायण ।।

































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