यज्ञ से ही सृष्टि का संतुलन संभव?।। Yagya Hi Jivan Hai.
जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, यज्ञ एवं वनस्पतियाँ दो ही ऐसे उपाय हैं, जो प्रकृति को सुचारू रूप से चला सकती है। अन्यथा इस प्रकृति को उथल-पुथल होकर विनष्ट होने से कोई भी नहीं बचा सकता। आधुनिक विज्ञान ने इस प्रकृति को असामान्य रूप से क्षति पहुंचाई है। जिसकी भरपाई हो पाना असंभव तो नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर है। और इसकी भरपाई का शीघ्रता से एक ही उपाय है – यज्ञ और केवल यज्ञ।।
अब प्रश्न यह उठता है, कि कैसे? तो बात यह है कि देवताओं को हमें उनका हव्य देना है। एक उदहारण के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं। जैसे हम हैं स्थूल, पर देवता हैं सूक्ष्म। हम उन्हें हव्य देंगे, तो उन्हें कैसे प्राप्त होगा? उन्हें तो सूक्ष्म हव्य चाहिए। शास्त्रानुसार जिससे वे प्रसन्न होकर हमें शुभ फल प्रदान करेंगे। हमारे पूर्वज ऋषियों (जो पूर्णतः वैज्ञानिक थे) के द्वारा इसका उपाय सोचा गया “यज्ञ”।।
इसका दृष्टांत भी समझना चाहिए। हमारी आत्मा को भी भोजन चाहिये होता है। परन्तु हमारी आत्मा तो सूक्ष्म है। उसे हमारा यह स्थूल भोजन कैसे मिल सकता है? उसे तो सूक्ष्म भोजन चाहिये। उसे सूक्ष्म भोजन जो कि हम देते हैं, परन्तु कैसे? हमारे द्वारा किये जाने वाले इसी स्थूल भोजन के द्वारा हमारी आत्मा को भी सुक्ष्म भोजन प्राप्त होता है। क्योंकि हम स्थूल भोजन को मुख के माध्यम से अपनी जठराग्नि में होम करते हैं। ऐसा करने से हमारी जठराग्नि उस स्थूल भोजन को सूक्ष्म कर देती है।।
वहीं सूक्ष्म अन्न हमारे आत्मा को प्राप्त हो जाने से वह हमारे शरीर को स्वस्थ रखता है। यदि आत्मा को वह स्थूल अन्न मुख के माध्यम से न पहुँचाया जायेगा, तो हमारा शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि सभी अस्वस्थ हो जायेंगे। फिर हम न अपना कोई लाभ कर सकेंगे, न दूसरों को उपकार। न कुछ बुद्धि द्वारा दूसरों का, न अपना कुछ हित सोच सकेंगे। ठीक उसी प्रकार जब हम अग्नि में हव्य डालते हैं, तब स्थूल अग्नि उस हवि को सूक्ष्म कर देती है और शान्त होकर स्यवं भी सूक्ष्म हो जाती है।।
तब वह सूक्ष्म अग्नि सूक्ष्म महाग्नि के साथ मिलकर उसे सूक्ष्म वायु की सहायता से आकाशाभिमुख जाती हुई द्युलोक में पहुँचकर देवों को समर्पण करती है। वे देवता उस सूक्ष्म हवि से तृप्त होकर प्रजा के हित के लिये वर्षादी के द्वारा धान्य आदि की उत्पति करते हैं। जैसे कि मनुस्मृति में कहा गया है और उसी का बीज वेद में मिलता है-
“हविष्यान्तमजरं स्वविदि दिविस्पृशि आहुतं जुष्टमग्नौ”- ऋ.सं. 10/8/88
इससे स्पष्ट हुआ कि जब हम देवताओं को प्रसन्न करेंगे, तो उनके द्वारा सम्पूर्ण चराचर स्थावर जङ्गम आदि पालित रहेगा। क्योंकि सभी का निर्वाह वृष्टि एवं अन्न से ही संभव है। उन देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय है- यज्ञ। यज्ञ के माध्यम से देवपूजा सिद्ध हुई, अतः यज्ञ का महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। शास्त्रों की यह घोषणा है, कि यज्ञ देवों को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। अब प्रश्न यह उठता है, कि ये देवता कौन हैं? इनका हमसे क्या सम्बन्ध है?।।
देवान् भावयताऽनेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेय परमवाप्स्यथ।।
अर्थ:- प्रजापति ने कहा- हे मनुष्यों! यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को प्रभावित करो। देवताओं को तृप्त करो। तृप्त हुए देव तुमको तृप्त करें। परस्पर तृप्त करते हुए आप सब परम कल्याण को प्राप्त करोगे। वे कौन से देव हैं, जिनको हम (मनुष्य) यज्ञ के द्वारा तृप्त कर सकते हैं और उसके बदले में सुख की अथवा अनुकूल परिस्थितियों की कामना कर सकते हैं? हमारे वैदिक सनातन ग्रंथों के आधार पर जिन्हें हमारे ऋषियों ने अग्नि, चन्द्र, पृथ्वी, सूर्य, औषधि, वनस्पति आदि नामों से संबोधित किया है। सीधे तौर पर प्रकृति की उपासना का सन्देश दिया गया है जिनकी उपासना से हम (सम्पूर्ण मनुष्य प्रजाति) सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं।।
अब प्रश्न यह है, कि यज्ञ से इनकी तृप्ति कैसे होती है? यह भी विचार करना आवश्यक है। इसका एक स्थूल रूप मनु महाराज के श्लोक द्वारा स्पष्ट होता है-
अग्नौ प्रस्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
आदित्याज्ज्यते वृष्टिरवृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥
अर्थात:- अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य की किरणों में उपस्थित होती है। उसके संसर्ग से अन्तरिक्ष में इस प्रकार का वातावरण निर्मित हो जाता है। जिससे मेघों का संग्रह होने लगता है। वे समय पाकर पृथ्वी पर बरसते हैं। उस पर वृष्टि से यहाँ औषधि, वनस्पति, लता, फल, फूल आदि विविध खाद्य पदार्थ न केवल मानव के लिये अपितु प्राणिमात्र के लिए उत्पन्न होते हैं। औषधि, वनस्पति, लता, फूल, फल, आदि खाद्यों में विविध प्रकार की जीवन शक्तियाँ रहती हैं। जो फलादि का उपभोग करने से प्राणियों को जीवन प्रदान करती हैं।।
वे जीवन शक्तियाँ इनमें अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल आदि के प्रभाव से ही उत्पन्न हो पाती हैं। यदि हम यज्ञादि अनुष्ठान करके आज्य एवं अन्य विविध सामग्री को अग्नि के द्वारा उन देवों तक पहुँचाते हैं, तो वे उन जीवन शक्तियों को अधिक और उत्तम रूप से हमें प्रदान करने में समर्थ होते हैं। यही यज्ञ के द्वारा देवों की तृप्ति का स्वरूप है। यदि हम यज्ञ नहीं करते तो प्रकृति द्वारा जो जीवन उर्जा हमें प्राप्त होता है, जैसे – सूर्य, चन्द्र किरणों द्वारा रस वर्षा करते हैं। ताप पहुँचाते हैं। वायु प्राण संचार करता है। जल अनुकूल रसों को प्रदान करता है।।
इतना ही नहीं, अपितु जो अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणुओं के रूप में अनन्त राक्षस या असुर (कोरोना आदि) हमारे जीवन को समाप्त कर देने के लिये हमारे चारों ओर मँडराते हैं। ये प्रकृति की अनुकूलता से ध्वस्त हो जाते हैं। जिन्हें हमारे शास्त्रों की भाषा में भगवत्कृपा कहते हैं। ये हमें (मनुष्यों को) बचाने का यत्न प्रतिक्षण करते रहते हैं। पर हमारे द्वारा मलीनता आदि का प्रसार करने वाले कार्यों से असुरों (मृत्युकारक वायरस) की संख्या में कल्पनातीत वृद्धि होती है। जिससे प्रजा में रोग एवं महामारी के रूप में फैल जाते हैं। प्रजा नष्ट होने लगती है। पर वह इसके आधार-भूत कारणों को नहीं समझ पाती और कष्ट उठाती है।।
यदि हम यज्ञों का अनुष्ठान समय-समय पर करते रहते हैं तो देवों (सकारात्मक उर्जाओं) को पुष्ट बने रहने में पूरा सहयोग प्राप्त होता है। यज्ञ से वायु की शुद्धि का यही अभिप्राय है। केवल वायु पद तो उपलक्षण मात्र है उसका तात्पर्य सभी देवों की शुद्धि अर्थात् पुष्टि होने से है। समस्त वातावरण की शुद्धि ही यहाँ अपेक्षित है। इस प्रकार पुष्ट व तृप्त होकर समस्त देव उन असुरों का विनाश करने में पूर्ण समर्थ होते हैं। जिससे हमको दीर्घ आयु प्राप्त होता है।।
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नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।
जय श्रीमन्नारायण ।।





































