भगवान कपिल द्वारा भक्ति का विवेचन।।

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Bhakti Ka vivechan
Bhakti Ka vivechan

भगवान कपिल द्वारा भक्ति का विवेचन।। Bhagwan Kapil Dwara Bhakti Ka Vivechan.

जय श्रीमन्नारायण, Shrimad Bhagwat Katha.

मित्रों, जैसा की आप सभी जानते हैं, कि माता देवहूति के प्रश्न और भगवान कपिल के द्वारा दिए गए उत्तर के विषय पर चर्चा चल रही है। तो आइये इस चर्चा को कुछ और आगे बढायें।।

श्रीमद्भागवत महापुराण – स्कन्ध तृतीय – अध्याय – २५ वाँ।।

माता देवहुति ने पूछा – देवहूतिरुवाच:-

काचित्त्वय्युचिता भक्तिः कीदृशी मम गोचरा।।
यया पदं ते निर्वाणमञ्जसान्वाश्नवा अहम्।।२८।।

अर्थात:- देवहुति ने कहा- भगवन्! आपकी समुचित भक्ति का स्वरूप क्या है? और मेरी जैसी अबलाओं के लिए कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहज में ही आपके निर्वाण पद को प्राप्त कर सकूँ?।।२८।।

निर्वाणस्वरूप प्रभो! जिसके द्वारा तत्वज्ञान होता है और जो लक्ष्य को बेधनेवाले बाण के समान भगवान कि प्राप्ति करवाने वाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है और उसके कितने अंग हैं?। हे हरे! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपा से मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषय को सुगमता से समझ सकूँ।।

भगवान मैत्रेय जी महात्मा विदुर जी से कहते हैं, विदुर जी! जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिलजी के ह्रदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्वों का निरूपण करनेवाले शास्त्र का, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही भक्ति के स्वरूप का विस्तार एवं योग का भी वर्णन किया।।

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श्रीभगवानुवाच:-
देवानां गुणलिङ्गानामानुश्रविककर्मणाम्।।
सत्त्व एवैकमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या।।३२।।

अर्थात:- श्री भगवान ने कहा- माता! जिसका चित्त एकमात्र भगवान में ही लग गया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों में लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान करवाने वाली इन्द्रियाँ (कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ – दोनों प्रकार की) की जो सत्वमुर्ती श्रीहरी के प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है, वही भगवान की अहैतुकी भक्ति है। यह मुक्ति से भी बढ़कर है, क्योंकि जठरानल जिस प्रकार से खाए हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंस्कारों के भण्डार स्वरूप लिंग शरीर को तत्काल भस्म कर देती है।।

मेरी ही प्रशन्नता के लिए समस्त कार्य करनेवाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक दुसरे से मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमों की चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्य मोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते।।३४।।

कुछ लोग कहते हैं, की कहाँ लिखा है, की मूर्ति पूजन श्रेयस्कर होता है? तो ऐसे लोगों को भागवत जी का ये श्लोक जो स्वयं भगवान कपिल के द्वारा कही गयी है – देखना चाहिए।।

पश्यन्ति ते मे रुचिराण्यम्ब सन्तः प्रसन्नवक्त्रारुणलोचनानि।।
रूपाणि दिव्यानि वरप्रदानि साकं वाचं स्पृहणीयां वदन्ति।।३५।।

अर्थात:- हे माँ! वे साधुजन अरुण-नयन एवं मनोहर मुखारविन्द से युक्त मेरे परम सुन्दर और वरदायक दिब्य रूपों की झाँकी करते हैं और उनके साथ संभाषण भी करते हैं, जिसके लिए बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं।।३५।।

इस श्लोक का भावार्थ यही है, की भगवान की प्रतिमा को जिनका पूजन, अर्चन और वंदन करते हुए नित्य निहारा करो। क्योंकि ऐसा मेरे परम भक्तजन किया करते हैं, दुष्टजन ऐसा नहीं करते।।

और आगे कहते हैं, कि दर्शनीय अंग-प्रत्यंग, उदार हास-विलास, मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त मेरे उन रूपों की माधुरी में उनका मन और उनकी इन्द्रियाँ फँस जाती है। ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्हें परमपद की प्राप्ति करा देती है।।

अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोग संपत्ति, भक्ति की प्रवृत्ति के पश्चात् स्वयं प्राप्त होनेवाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठ लोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाम में पहुँचने पर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती है।।

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न कर्हिचिन्मत्पराः शान्तरूपे नङ्क्ष्यन्ति नो मेऽनिमिषो लेढि हेतिः।।
येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्च सखा गुरुः सुहृदो दैवमिष्टम्।।३८।।

अर्थात:- जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु सुहृद और इष्टदेव हूँ – वे मेरे ही आश्रय में रहनेवाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठधाम में पहुंचकर किसी प्रकार की इन दिब्य भोगों से रहित नहीं होते और न ही उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है।।

माताजी! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जानेवाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से सम्बन्ध रखनेवाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्याय संग्रहों को भी छोड़कर अनन्य भक्ति से सब प्रकार से मेरा ही भजन करते हैं। उन्हें मैं मृत्युरूप संसार सागर से सहजता से पार कर देता हूँ।।

ये उपर के सारे व्याख्यान भगवान कपिल ने माता देवहुति को भक्ति के स्वरूप का वर्णन करते हुए दिया है। अब आप इस विषय को आसानी एवं सरलता से यहाँ श्री रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में श्री राम-वाल्मीकि सम्वाद में देख सकते हैं:-

जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गुह रूरे॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥

निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥
तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥

जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥

सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी॥
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा॥

चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥

तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥

सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥

स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥
जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥

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आगे भगवान कपिल कहते हैं:-
नान्यत्र मद्भगवतः प्रधानपुरुषेश्वरात्।।
आत्मनः सर्वभूतानां भयं तीव्रं निवर्तते।।४१।।

अर्थात:- मैं साक्षात् भगवान हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों की आत्मा हूँ। मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मनुष्य मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं पा सकता।।४१।।

मेरे भय से यह वायु चलती है, मेरे भय से ही सूर्य तप रहा है। मेरे भय से इन्द्र वर्षा करता है और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत्त होता है। योगीजन ज्ञान-वैराग्य युक्त भक्तियोग के द्वारा शान्ति प्राप्त करने के लिए मेरे निर्भय चरण कमलों का ही आश्रय लेते हैं।।

एतावानेव लोकेऽस्मिन्पुंसां निःश्रेयसोदयः।।
तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम्।।४४।।

अर्थात:- संसार में मनुष्य के लिए सबसे बड़ी कल्याण प्राप्ति यही है, कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाय।।४४।।

इस उपर वाले श्लोक को इस दोहा से मिलाकर देखिये सेम टू सेम कॉपी है इस श्लोक का:-

दोहा:- जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।।131।।

अर्थात:- जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है।।131।।

तो अब आज के लिए इतना ही, और मैं अपने अगले अंक में आप सभी मित्रों को उस ओर ले चलने का प्रयास करूँगा और भी कुछ अनूठी ज्ञान से भी अवगत करवायेंगे भगवान कपिल और मेरा प्रयास रहेगा की मैं उस विषय को सहज एवं सरल शब्दों में आपलोगों के सम्मुख रख सकूं।।

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आप सभी अपने मित्रों को फेसबुक पेज को लाइक करने और संत्संग से उनके विचारों को धर्म के प्रति श्रद्धावान बनाने का प्रयत्न अवश्य करें।।

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।। 

 
जय जय श्री राधे ।।
जय श्रीमन्नारायण ।। 
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भागवत प्रवक्ता- स्वामी धनञ्जय जी महाराज "श्रीवैष्णव" परम्परा को परम्परागत और निःस्वार्थ भाव से निरन्तर विस्तारित करने में लगे हैं। श्रीवेंकटेश स्वामी मन्दिर, दादरा एवं नगर हवेली (यूनियन टेरेटरी) सिलवासा में स्थायी रूप से रहते हैं। वैष्णव धर्म के विस्तारार्थ "स्वामी धनञ्जय प्रपन्न रामानुज वैष्णव दास" के श्रीमुख से श्रीमद्भागवत जी की कथा का श्रवण करने हेतु संपर्क कर सकते हैं।।

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