मुक्ति अर्थात आत्मकल्याण की अवस्था।।

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Mukti Ka Samay
Mukti Ka Samay

मुक्ति अर्थात आत्मकल्याण की अवस्था।। Mukti Ka Samay.

कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्।।

मित्रों, इस संसार मेँ मानव जन्म अति दुर्लभ है। इसके सहारे परमात्मा की भी प्राप्ति हो सकती है। किन्तु कोई यह नहीँ जान पाता कि इसका अन्त कब आने वाला है। अतः बुद्धिमान पुरुषोँ को चाहिए कि यह यौवन और वृद्धावस्था का विश्वास न करे और बाल्यावस्था से ही प्रभु-प्राप्ति के लिए साधन करेँ। प्रह्लाद चरित्र भी हमेँ यही सिखाता है, कि बाल्यावस्था से ईश्वर भजन मेँ लीन हो जाना चाहिए।।

माता-पिता को चाहिए कि अपनी संतानो मेँ धार्मिक संस्कार उत्पन्न करेँ। वृद्धावस्थावस्था मेँ देह की सेवा तो हो सकती है, किन्तु देव सेवा नहीँ। मानव शरीर की प्राप्ति भोगोपभोग के लिए नहीँ हुई है। अपितु भगवद् भजन द्वारा प्रभु-प्राप्ति के लिए है। शरीर के नाशवान होने पर भी मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। क्योँकि यह जन्म इच्छित वस्तु दे सकता है। इस अनित्य और नाशवान शरीर से नित्य वस्तु भगवान की प्राप्ति हो सकती है।।

इसलिये यह मानव शरीर बड़ा ही कीमती है। जन्म मरण की वेदना सहता हुआ जीव इस शरीर में आया है। ईश्वर नित्य एवं शरीर अनित्य है। किन्तु इसी अनित्य शरीर से ही नित्य ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। अतः मानवदेह की भी बड़ी भारी महिमा है। कहा जाता है, कि कभी मनुष्य की आयु सौ वर्ष की होती थी। आज तो आधी आयु निद्रावस्था मेँ, चौथाई आयु बाल्यावस्था और कुमारावस्था मेँ बीत जाती है।।

बाल्यावस्था अज्ञान मेँ, कुमारावस्था खेलकूद मेँ बीत जाती है। वृद्धावस्था के वर्ष भी निरर्थक होते हैँ। क्योँकि शारीरिक क्षीणता के कारण वृद्धावस्था मेँ कुछ भी काम नहीँ हो पाता। यौवन के वर्ष कामभोग मेँ गुजर जाते हैँ। ऐसे में अब कितने वर्ष शेष रहे? और इन शेष वर्षो मेँ आत्मकल्याण की साधना कब और कैसे होगी? अतः मनुष्य को सदैव आत्मकल्याण के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।।

क्योँकि —
“यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा।
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्।
प्रोद्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।।”

अर्थ:- जब तक यह शरीररुपी गृह स्वस्थ है, जब तक वृद्धावस्था का आक्रमण नहीँ हो पाया है। जब तक इन्द्रियों की शक्ति भी क्षीण नहीं हुई है। आयुष्य का क्षय भी नहीँ हुआ है। विद्वान मनुष्य को चाहिए, कि तब तक वह अपने कल्याण का प्रयत्न कर ले। अन्यथा घर मेँ आग लगने पर कुँआ खोदने से क्या लाभ?।।

“ततो यतेत कुशलः क्षेमाय भयमाश्रितः।।
शरीरं पौरुषं यावन्न विपद्यते पुष्कलम् ।।”

अर्थात:- हमारे मस्तिष्क को कई प्रकार के भय घेरे रहते हैँ। अतः यह शरीर जो भगवत् प्राप्ति के लिए पर्याप्त है। रोगग्रस्त बनकर मृत्युवश हो जाए, उसके पहले ही आत्मकल्याण करने का प्रयत्न बुद्धिमानोँ को कर लेना चाहिए।।

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नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।

।। नमों नारायण ।।

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भागवत प्रवक्ता- स्वामी धनञ्जय जी महाराज "श्रीवैष्णव" परम्परा को परम्परागत और निःस्वार्थ भाव से निरन्तर विस्तारित करने में लगे हैं। श्रीवेंकटेश स्वामी मन्दिर, दादरा एवं नगर हवेली (यूनियन टेरेटरी) सिलवासा में स्थायी रूप से रहते हैं। वैष्णव धर्म के विस्तारार्थ "स्वामी धनञ्जय प्रपन्न रामानुज वैष्णव दास" के श्रीमुख से श्रीमद्भागवत जी की कथा का श्रवण करने हेतु संपर्क कर सकते हैं।।

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