जानते हुए भूलकर भी अधर्म ना करें।। Dharm Kare Adharm Nahi.
जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, एक बार की बात है, एक जंगल की राह से एक जौहरी गुजर रहा था। उसने देखा! एक कुम्हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चला आ रहा है। यह देखकर जौहरी बड़ा चकित हुआ सोंचा ये कितना मूर्ख है। क्या इसे पता नहीं है, कि ये हीरा लाखों-करोड़ों का है। इतने कीमती वस्तू को गधे के गले में सजाने के लिए बाँध रखा है।।
उस जौहरी ने बड़े प्रेम से कुम्हार से पूछा! सुनो भाई, ये पत्थर जो तुम गधे के गले में बांधे रखे हो। इसके कितने पैसे लोगे? कुम्हार ने कहा – महाराज! इसके क्या दाम मिलेंगे पर चलो आप इसके आठ आने दे दो। हमनें तो ऐसे ही बाँध दिया था कि गधे का गला सूना न लगे। परन्तु अगर आप ले लोगे तो उसी पैसों से बच्चों के लिए आठ आने की मिठाई गधे की ओर से ले जाएँगे।।
मिठाई खाकर बच्चे भी खुश हो जायेंगे। शायद गधा भी अपने गले के बोझ से हल्का हो जायेगा। पर जौहरी तो जौहरी ही था, पक्का बनिया। उसे लोभ पकड़ लिया। उसने कहा आठ आने तो थोड़े ज्यादा है। तू इसके चार आने ले ले। कुम्हार भी थोड़ा झक्की था। वह ज़िद पकड़ गया कि नहीं देने हो तो आठ आने दो। और अगर आठ आने नहीं दे सकते तो कम से कम छह आने तो दे ही दो। नहीं तो हम नहीं बेचेंगे।।
जौहरी ने कहा – देखो भईया पत्थर ही तो है। चार आने कोई कम तो नहीं। उसने सोचा थोड़ी दूर चलने पर आवाज दे देगा। आगे चला गया। लेकिन आधा फरलांग चलने के बाद भी कुम्हार ने उसे आवाज न दी। तब उसे लगा बात बिगड़ गई, नाहक ही छोड़ा। छह आने में ही ले लेता तो ठीक था। जौहरी वापस लौटकर आया। लेकिन तब तक बाजी हाथ से जा चुकी थी। गधा खड़ा आराम कर रहा था। और कुम्हार अपने काम में लगा था।।
जौहरी ने पूछा – क्या हुआ? पत्थर कहां है? कुम्हार ने हंसते हुए कहा – महाराज एक रूपया मिला है। उस पत्थर का। पूरा आठ आने का फायदा हुआ है। आपको छह आने में बेच देता तो कितना घाटा होता! और अपने काम में लग गया। पर जौहरी के तो माथे पर पसीना आ गया। उसका तो दिल बैठा जा रहा था, सोच सोच कर। हाय! लाखों का हीरा यूं मेरी नादानी की वजह से हाथ से चला गया।।
उसने कुम्हार से कहा – मूर्ख! तू बिलकुल गधे का गधा ही रहा। जानता है, उसकी कीमत कितनी है। वह लाखों का था और तूने एक रूपये में बेच दिया। मानो बहुत बड़ा खजाना तेरे हाथ लग गया। उस कुम्हार ने कहा – हुजूर मैं अगर गधा न होता तो क्या इतना कीमती पत्थर गधे के गले में बाँध कर घूमता? लेकिन आपके लिए क्या कहूं?।।
परन्तु आप तो गधे के भी गधे निकले। आपको तो पता ही था कि लाखों का हीरा है। और आप उस के छह आने देने को तैयार नहीं थे। आप पत्थर की कीमत पर भी लेने को तैयार नहीं हुए। यदि इन्सान को कोई वस्तु आधे दाम में भी मिले तो भी वो उसके लिए मोल भाव जरुर करेगा। क्योकि लालच हर इन्सान के दिल में होता है। कहते है न कि – चोर चोरी से जाये, हेरा फेरी से न जाये।।
जौहरी ने अपने लालच के कारण अच्छा सौदा गँवा दिया। धर्म का जिसे पता है उसका जीवन अगर रूपांतरित न हो तो धर्म को जानते हुये भी वह उसी जौहरी की भांति गधा है। जिन्हें पता नहीं है वे क्षमा के योग्य है। लेकिन जिन्हें पता है उनको क्या कहें? दुर्योधन कहते हैं, कि जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति। जानामि अधर्मं न च में निवृत्ति:।।
अर्थात मैं धर्म को जनता हूँ, लेकिन उसमें मेरी कोई रूचि नहीं है। तथा साथ ही अधर्म की परिभाषा भी जानता हूँ, परन्तु जानते हुये भी उसमें मेरी रूचि है, वो करने में मुझे अच्छा लगता है इसलिये मुझे उससे निवृति नहीं है। परन्तु ऐसे विचारों वाले का परिणाम तो आपने सुना ही होगा। इसलिये भूलकर भी जानते हुए अधर्म नहीं करना चाहिये।।
।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।
नारायण सभी का नित्य कल्याण करें । सभी सदा खुश एवं प्रशन्न रहें ।।
जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम्।।
।। नमों नारायण ।।
This is a very weighty post. Thanks quest of posting this. Querida Hillery Kaila